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[ भगवान महावार
फिर उनके ठहरनेका उल्लेख नही मिलता है, उसका यही कारण प्रतीत होता है कि जैनियोने जान लिया कि बुद्ध अब जिनप्रणीत धर्मके विरुद्ध होगये है; इसलिये उन्होंने भ्रष्ट जैन मुनिको पुनः आश्रय देना उचित नहीं समझा। इस तरह भी जैनोकी इस मान्यताका समर्थन होता है कि म० वुद्ध एक समय जैन मुनि भी रहे थे ।
अन्ततः म ० वुद्ध स्वयं अपने मुखले नियोकी इस मान्यताको स्वीकार करते है । एक स्थानपर वे कहते है कि " मैंने सिर और दाढी के बाल नोचनेकी भी परी पह सहन की है ।" यह मुनियोकी केशलोच क्रिया है । अतएव इसका अभ्यास बुद्धने तब ही किया होगा जब वह जैन मुनि रहे होंगे । इस तरह यह स्पष्ट है कि म० बुद्ध अपने धर्मका प्रचार करनेके पहिले जैन मुनि थे और हम देखते है कि उन्होने किसी एक सप्रदायकी मुनि-क्रियायों का पालन नही किया था। एक समय वे वानप्रस्थ सन्यासी थे तो दूसरे समय जैन मुनि थे । ** भगवान महावीरके विषय में जब हम विचार करते है तो देखते हैं कि उनका साधुजीवन म० बुद्धके विपरीत एक निश्चित और सुव्यवस्थित जीवन था । जैन शास्त्रोके अध्ययनसे हमको ज्ञात होता है कि भगवान महावीर बाल्यावस्था से ही श्रावकके व्रतोंका अभ्यास करते हुये अपने पिताके राज्यकार्यमे सहायक बन रहे थे । वे इस गृहस्थावस्था से ही संयमका विशेष रीतिसे अभ्यास
१. ' डिस्कोस ऑफ गौतमबुद्ध' और मि० सॉन्डर्सका 'गौतमबुद्ध' पृष्ठ १५.२. मूलाच'र १२९ और जैनसूत्र (SBE.) भाग 1 पृष्ठ ५६. डॉ० भाण्डारकरने भी म० बुचका जैनमुनि होना स्वीकार किया है । देखो जैनहितैषी भाग ७ अंक १२ पृष्ठ १.
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