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और म० बुद्ध]
[ १६२ चोरीके लिए 'अदिन्नादान' कुशीलके लिये 'अब्रह्मचर्य' और 'असत्सके लिये 'मुसाबाद' शब्द व्यवहृत हुये हैं । जैन शास्त्रोमें भी ऐसे ही शब्द मिलते हैं । अतएव यह स्पष्ट है कि यहां भी जैन प्रभाव बाकी नहीं है। फिर महावग्ग और चुल्लवग्गमें जो बौद्ध नियमोंका निर्माणक्रम वर्णित है वह हमारी उक्त व्याख्याकी और भी पुष्टि करता है । इससे ज्ञात है कि बौद्ध नियम एकदम एक साथ निर्मित नहीं हुए थे। जैसे२ जिस बातकी आवश्यक्ता पडती गई वैसे वैसे वह स्वीकार की गई। साधुओंको आचार्य, उपाध्याय
आदिमें विभाजित करना जैन धर्ममें ही मिलता है तथापि 'वस्सा' (चातुर्मास) नियम खास जैनियोंका हैं। इसी तरह गंधकुटी, शासन, आश्रव, संवर आदि शब्द मूलमें जैनियोके ही हैं। इस प्रकार यह स्पष्ट है कि आचारनियमोंको नियत करनेमें भी म० बुद्धने जैन आचारनियमोंसे सहायता ली थी।
किंतु इस विषयमें यह भूल जाना ठीक नहीं है कि यद्यपि १० कोवीने जैन सूत्रोंकी भूमिकामे प्रगट किया है कि जैन और बौद्ध दोनोंने इन नियमोंको ब्राह्मण श्रोतसे ग्रहण किया था। किन्तु इस व्याख्याका प्रमाणित होना अभी शेष है कि सचमुच जैन धर्मकी उत्पत्ति ब्राह्मण धर्मके बाद हुई थी। अबतक जो कुछ भी शास्त्रीय और शिलालेखीय साक्षी प्राप्त हुई है वह जैनधर्मका अस्तित्व ब्राह्मण धर्मके साथ २ प्रकट करती है । स्वयं वेदोंमें जैन तीर्थंकरोंका नामोल्लेख है । तथापि ऋग्वेदमें (३॥३॥२॥१४) एक यज्ञद्रोही सपदायके .. रूपमें जैनधर्मके भस्तित्वको स्वीकार किया गया है । (देखो अंग्रेजी
नगजट भाग २१) तिसपर अन्तत: डॉ. जैकोवीने जैनधर्मके प्राचीनतम अस्तित्वको स्वीकार किया है । (देखो जैन श्वः कान्फ्रेन्स हेरल्ड भाग १० पृ० २५२-२५३) ।