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[ भगवान महावीरबुद्धदेवके उक्त अष्टांगमार्गमें 'साक्यपुत्तीयसमणो' के लिये जो चारित्रनियम नियत थे, वह सब गर्भित हैं । बौद्ध आचारनियमोंमें जो 'शील' मुख्य माने गये है, वह भी इसीमे सम्मिलित हैं । बौद्धोके यह 'शील' जैनोके १२ शीलवतो (५ अणुव्रत, ३ गुणव्रत और ४ शिक्षाव्रत)से सामान्यतः मिलते जुलते प्रतीत होते हैं। बौद्धशास्त्रोमें यह शील आठ बतलाये गए है; और बौद्ध साधुओंके लिये इनका पालन करना आवश्यक है । यह आठ इस प्रकार हैं:-(१) अहिसा, (२) अचौर्य, (३) पाप और कामसेवनका त्याग, (४) सत्य, (५) मादकवस्तुओका त्याग, (६) अनियमित समयों और रात्रिको भोजन करनेका त्याग, (७) नाचने, गाने, इतरफुलेलके व्यवहार आदिका त्याग, (८) और जमीनपर चटाई विछाकर सोना।' इनमें से पहिलेके चार तो जैनियोके अणुव्रतोंके समान ही दिखते है, किन्तु जैनियोका पाचवा अणुव्रत बौद्धोके पांचवें शीलसे नितान्त विभिन्न और विशुद्ध है। उपरोक्तमें शेष तीन जो रहे वे जैनियोंके शिक्षाव्रतके ही संक्षिप्त और विकृत रुपान्तर है । यह सामञ्जस्य जाहिरा इतना स्पष्ट है कि हमें यह कहनेमें सकोच नही है कि इन नियमोंको बुद्धने जैनधर्मसे ग्रहण किया था किंतु बुद्धके निकट इन नियमोका वास्तविक महत्व प्रायः बहुत हल्का हो गया है। बौद्ध शास्त्रोंमे इनके लिये जो शब्द व्यवहृत हुये है, वह भी इसी बातके द्योतक हैं । ' दीघनिकाय' ( P. T. S. Vol. I. P. 4) में हिसाके लिए 'पाणातिपात'
१. हीस डेविडसकी " बुद्धिज्म " पृष्ट १३८ इन नियमोंमें प्रारभके पाचका पालन करना पौद्ध गृहस्योंके लिये भी आवश्यक बतलाया गया है।