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[ भगवान महावीरजैन आचारनियमोसे बौद्ध नियमोकी इतनी सदृशता है, परन्तु बौद्ध नियम जैन नियमोंके समान ही विशद और गंभीर नहीं है। एक व्रती श्रावकके पालन करने योग्य अणुव्रतो जितना भी महत्त्व उनका नहीं है। इस व्याख्याकी याथार्थता दोनो धर्मोके नियमोका तुलनात्मक विवेचन करनेसे स्वयं प्रमाणित.हो जावेगी, किन्तु विस्तारभयके कारण हम यहांपर केवल दोनो धर्मोके अहिसानियमको लेते हैं। जाहिरा इसका भाव दोनो धर्मोमें एक है, परन्तु एक बौद्ध श्रमण इसका पालन करते हुये भी मांस और मच्छीको मोननमें ग्रहण करनेसे आगा पीछा नहीं करेगा। इसके विपरीत एक जैन गृहस्थ उनका नाम सुनना भी पसन्द नहीं करेगा। यद्यपि वह जैन मुनियोकी अपेक्षा बहुत नीचे दनकी अहिंसाका पालन करता है। बौद्ध भिक्षु स्वय तो किसी जीवका बध नहीं करेगा, परन्तु यदि कही मृत मांस मिल जावे तो उसको ग्रहण करनेमें संकोच नहीं करेगा। स्वयं म० बुद्धने कईवार मांसभोज किया था। वैशालीमें सेनापति सिंहके यहा जब मांसभोजन बुद्ध एवं बौद्ध साधुओको कराया गया तो जैनियोंने उसी समय इसका प्रकट विरोध किया, किन्तु यह समझमें नहीं आता कि जब वौद्ध गृहस्थोके लिये भी अहिसाव्रत लागू है तब वे किस तरह चौद्ध भिक्षुओंके लिये मांस भोजन तैयार करसकते है ? परन्तु बौद्धशास्त्रोमें अनेक स्थलोंपर मांस भोजन तैयार किये जानेका उल्लेख मिलता है और एक स्थलपर
१. महावग्ग ६।२३।२; २५२,३१, और १४ २. रत्नकरण्ड आपकाचार । 3. अगुत्तरनिकाय-अहकनिपात-सहीसुत १२, महापरित निव्यानुसुत्त ४१४१८, अंगुत्तरनिकाय-पचकनिपात-उगागहपतिमुत. ४. महावग्ग ९३१.
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