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। भगवान महावीरकर बतलाकर यह उपदेश देने लगे कि ज्ञानसे मोक्ष नहीं होता, अज्ञानसे ही मोक्ष होता है। देव या ईश्वर कोई है ही नहीं। इसलिए स्वेच्छापूर्वक शून्यका ध्यान करना चाहिये।'भावसंग्रह' नामक प्राचीन दि० जैन ग्रन्थमें इसके विषयमें यही कहागया है, परन्तु यहां पर किसी कारणवश मस्करि और पूरणका उल्लेख एक साथ किया है, ' यथा.
"मसर्यरि-पूरणारिसिणो उप्पण्णो पासणाहतित्थम्मि । सिरिवीर समवशरणे अगहियझुणिणा नियत्तेण ||१७६|| वहिणिग्गएण उत्तं मज्झं एयारसांगधारिस्स। णिग्गइ झुणी ण, अरुहो णिग्गय विस्सास सीसस्स ॥१७॥ ण मुणइ जिणकहिय सुयं संपइ दिक्खाय गहिय गोयमओ। विप्पो वेयभासी तम्हा मोक्खं ण णाणाओ ॥१७८॥ अग्णाणाओ मोक्खं एवं लोयाण पयडमाणो हु । देवो अणत्थि कोई सुण्णं झाएह इच्छाए ॥ १७२ ॥ ___ इसके अतिरिक्त 'दर्शनसार' और 'गोम्मटसार जीवकाण्ड' मे भी मक्खलिगोशालकी अज्ञानमतमे गणना की है। बौद्धोके समन्न फलसुत्तमे भी गोशालकी इस मान्यताका उल्लेख इस प्रकार मिलता है कि 'अज्ञानी और ज्ञानवान संसारमे भ्रमण करते हुए समान रीतिसे, दुखका अन्त करते है' (सन्धावित्वा संसरित्वा. दुःखस्सा
१ इस सबके लिये उक्त लेख और हमारी पुस्तक 'भगवान महावीर' में 'मक्ख गोशीले और पूरण वाया शीर्षक परिच्छेद देखना चाहिय ।