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-और म० वुद्ध]
[ १६१ 'समदा थवो य वंदण पाडिक्कमण तहेव णादव्वं । पञ्चक्खाण विसग्गो करणीयावासया छप्पि ॥२२॥
अर्थात्-(१) समता-सर्वके प्रति-सबमें समता भाव रखना, (२) स्तव-तीर्थकर भगवानका स्तवन करना, (३) वन्दना-देवशास्त्र गुरुकी वंदना करना, (४) प्रतिक्रमण-कृतपापोकी आलोचना करना, (६) प्रत्याख्यान अमुकर पदार्थोके त्याग करनेका नियम करना
और (६) व्युत्सर्ग-अपनी देहसे ममता हटाकर उसे तपश्चर्या में लगाना । इस प्रकार साधुके लिये यह नित्यप्रतिके 'षडावश्यक' वताये गये है। श्रावकके लिये भी छै बातोका रोजाना करना लाजमी बतलाया गया है। जैसे कि आचार्य कहते हैं:
" देवपूजागुरूपास्तिः स्वाध्यायः संयमस्तपः। दानञ्चेति गृहस्थाणां षट्कर्माणि दिनेदिने ॥"
पद्मनंदिपचविंशतिका । अर्थात्-(१) जिन भगवानकी पूजा करना, उनके गुणोंको स्मरण करके । जिन प्रतिमायें ध्यानाकार होती है जिससे वे पुजारीके हृदयपर आत्मभावको अकित करनेमें सहायक है । (२) गुरुजगनिर्ग्रन्थमुनि और साधुननकी उपासना करना और उनकी शिक्षाओको ग्रहण करना । (३) संयमका अभ्यास करना जिससे मन और इंद्रियोपर अधिकार रहे, जैसे नियम करना कि मै आज नाटक देखने नहीं जाऊंगा, केवल दोवार ही भोजन करूगा, इतर फुलेल नहीं लगाऊगा इत्यादि । यह साधारण नियम है, परन्तु आत्मोनतिमें सहायक है। (४) स्वाध्याय-शास्त्रोंका अध्ययन, अध्यापन और मनन करना । ( ५ ) सामायिक अर्थात् एकान्त स्थानमें
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