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[ भगवान महावीर
प्रात: और सायंकालको बैठकर अथवा केवल प्रातःको बैठकर एक नियत समय तक तीर्थङ्कर भगवानके परमस्वरूपका अथवा आत्मगुणोका चिन्तवन और ध्यान करना । इससे आत्मशक्ति -बढ़ती है और समताभावकी प्राप्ति होती है । (६) दान - आहार, औषधि, शास्त्र और अभयरूपी दान सब ही पात्रोंको देना चाहिये । इन है आवश्यक बातोंको करनेसे उस आत्मदशाकी प्राप्ति होती है जिसमें सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यग्चारित्र साक्षातरूप विराजमान है। यही वह मार्ग है जिसमे कर्मोंका क्षय होता है और आत्मा विशुद्ध और स्वतंत्र होती जाती है ।
आत्मस्थितिमे अथवा आत्मध्यानमें उन्नति करना गुणस्थानक्रम बतलाया गया है । यह गुणस्थान कुल १४ हैं । इनका पूर्ण विवरण जैन शास्त्रोसे देखना चाहिये, किन्तु यहां यह जान लीजिये कि १३ वे गुणस्थान में पहुचकर मुनि चार घातिया कर्मोंका अर्थात् ज्ञानावर्णी, दर्शनावर्णी, मोहनीय और अन्तराय कर्मोंको, जो आत्माके स्वभाव के घातक है, उनका नाश कर देता है और इम अवस्थामें केवलज्ञान - सर्वज्ञताको प्राप्त करके अर्हत् सयोगकेवली अथवा सकल सशरीरी परमात्मा होजाता है । यह जीवित परमात्मा दो प्रकारके होते है. (१) सामान्यकेवली और (२) तीर्थङ्कर । सामान्यकेवली स्वयं निर्वाणलाभ करते है एवं अन्योको भी मोक्षमार्ग दर्शाते है, परन्तु उनके समवशरण आदिकी विभूति नहीं होती है। तीर्थकरों के समवशरण होता है और वे वहासे ' तीर्थ ' के भव्योंको मोक्षमार्गका सनातन उपदेश देते है । यह तीर्थ सघ चार प्रकारका होता है । (१) मुनि, (२) आर्यिका, (३) श्रावक, (४) श्राविका । इसी चतु