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-और म० बुद्ध ]
[१६३ निकाय संघको तीर्थकर भगवान अपनी गंधकुटीसे प्राकृतिक रूपमें उपदेश देते हैं, जिसको सबकोई अपनी२ भाषामें समझ लेता है।
श्री नेमिचन्द्राचार्यनी अर्हत भगवानका स्वरूप यों बतलाते हैं"णहचदुघाइकम्मो दसणमुहणाणवीरिय मइओ। मुहदेहत्थो अप्पा मुद्धो अरिहो विचिंतिज्जो ॥५०॥"
अर्थात्-अर्हतु वह हैं जिन्होने चार प्रकारके घातिया कर्मोको नष्ट कर दिया है और जो अनन्तचतुष्टय-अनंतदर्शन, अनंतज्ञान, अनंतवीर्य, अनतसुखकर पूर्ण हैं, जिनका शरीर अपूर्व प्रभामय और विशुद्ध है । वास्तवमें अहंतु भगवानके मोहनीयादि कर्मोके
अभावसे भूख, प्यास, भय, ईर्ष्या, द्वेष, मोह, जरा, रोग, मृत्यु, ___ पीड़ा आदि कुछ भी साधारण मानुषिक कमजोरियां शेष नहीं रहती हैं । इस अवस्थामें वे साक्षात् जीवित परमात्मा होते हैं, उनके शरीरकी प्रभा भी इस उच्चपदके सर्वथा उपयुक्त होती है । यही मालूम होता है मानो एक हजार सूर्य एकदम प्रगट होगये है। यह इच्छाओंसे सर्वथा रहित और विलकुल विशुद्ध होते हैं। यह पंचपरमेष्टियोंमें सर्व प्रथम हैं, जिनकी उपासना आदर्शवत् जैनी करते हैं।
___ अतएव जब यह सशरीरी परमात्मा चौदहवें गुणस्थानमें पहुंच जाता है, तब वह अयोगकेवली-कम्परहित पूर्ण शुद्ध आत्मा (Non- Vibrating Perfect Soul) होजाता है। यह अवस्था उन भगवानको मोक्षप्राप्तिसे इतने अल्प समय पहिले प्राप्त होती है कि अ, इ, उ, ऋ, ल, इन पांच अक्षरोका उच्चारण किया जासके । यह बहुत ही सूक्ष्म समय है। इसके बाद शरीरको त्यागकर आत्मा अपने यथार्थ स्वरूपमें सदाके लिये तिष्ठ जाती है और सिद्ध कहाती