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| भगवान महावीर
है । सिद्धभगवान फिर कभी लौटकर इस संसारावस्थामें नहीं आते हैं। वह सिद्धशिला में तिष्ठे अपने स्वाभाविक आनंदका उपभोग सदा करते रहते हैं ।
सिद्धभगवान एक पूजनीय परमात्मा हैं, जिनका यद्यपि संसारसे सम्बन्ध कुछ भी नहीं है, तो भी उनका चितवन शुभ भावो और आत्मध्यानके लिये एक साधन है। आचार्य कहते है:" णट्टकम्मदेहो लोयालोयस्स जाणओ दट्ठा । पुरिसायारो अप्पा सिद्धो ज्झाएह लोयसिहरत्थो ॥२१॥"
भावार्थ - " नष्ट कर दिये है अष्टकर्म देहसे जिसने लोकालोकका जाननेवाला और देखनेवाला देहरहित पुरुषके आकार लोकके अग्रभागमे स्थित ऐसा आत्मा सिद्ध परमेष्ठी है सो नित्य ही ध्याया जावे अर्थात् स्मरण करने योग्य है । " अस्तु,
इस प्रकार भगवान महावीरने समार सागरमे रुलती हुई आत्माओको उससे निकलकर सच्चा स्वाधीन सुख पानेका मार्ग सुझाया था, जो पूर्ण स्वावलम्बन कर सयुक्त है । सारांशतः उन्होंने बताया था कि अनादिकालसे कर्मके कुचक्रमे पडी हुई आत्मा अपनी ही मोहजनित मूर्ख नाके कारण संसार मे भटकती हुई दुख और पीडाका अनुभव कररही है, अतएव जब वह अपने निजी स्वभावको और परद्रव्यो के स्वरूपको स्वयं अपने अनुभव द्वारा अथवा गुरुके उपदेशसे हृदयङ्गम करलेती है तब यह रत्नत्रयरूपी मोक्षमार्गका अनुसरण करना प्रारम्भ करदेती है। तथापि दृढ़तापूर्वक उसका अभ्यास किये जानेसे एकदिन वह कर्मरूपी परतत्रताकी बेडियां काट डालती है और स्वयं स्वाधीन होकर परमात्मावस्थाके परमोत्कृष्ट