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[ भगवान महावीरश्रद्धानी मद्य, मांस, मधु और पांच उदुम्बर फलोंका ही त्यागी होता है । और सबसे नीचे दर्नेका व्यक्ति कोरी श्रद्धानी होता है । परन्तु उक्त पंचअणुव्रतोके पालनसे वह व्रती गृहस्थ अथवा श्रावक सम्यग्चारित्रके मार्ग में क्रमशः उन्नति करना प्रारम्भ करता है। इस उन्नतिक्रमका विधान, भगवानने ११ प्रतिमाओमे किया है। इन ११ प्रतिमाओका अभ्यास करके वह साधुके व्रतोको पालन करनेका अधिकारी होता है । इन प्रतिमाओंसे भाव, व्यक्तिविशेषकी आत्माने पूर्व प्रतिमासे जो उन्नति की है उसको व्यक्त करना है। इनमे विविध प्रकारके व्रत जैसे गुणव्रत, शिक्षाव्रत, सामायिक, प्रोषध इत्यादि गर्भित है । इन प्रतिमाओंको पूर्ण करके वह साधुओंके महाव्रतोका अभ्यासी होता है। इस अवस्थामे वह उक्त व्रतोको पूर्णरूपमे पालता है। ___ आत्म-समाधिकी प्राप्तिके लिये गृहस्थो और साधुओके लिये नित्यके छै आवश्यक कर्तव्य बतलाये गए हैं । साधुओंके लिये वह इस प्रकार है।
१. वीरोंके शानोमें भी जैन श्रावकके इस व्रता उल्लेख है अर्थात् भगवान महावीरके समयसे अबतक यह प्रत अविच्छन्न रूपमें यो ही चले आरहे है । देखो अगुत्तरनिकाय 315013. २. प्रोपध नियमका उल्लेस चोदोके उक्त शानमें इस प्रशर है-'पोपध के दिवस वे (निगन्य जेनी) एक कसे कहते है भाई, भर तुम अपने सब बस उतारकर एक और रस दो और कहो 'न को हमाग है और न हम किसीके है। यह भी जैन विवरणमे प्रायः मिलता है। नग्नावस्थामें प्रोषष करनेका मी उस अर पातों में है। (दयो सागारधर्मामृत पृष्ठ ४२१)।