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________________ १४६] [ भगवान महावोरआठ युग बतलाते है, जिनमें चार उत्सर्पिणी और चार अर्पणी कहलाते है । उनके उत्सर्पिणीमें हरवातकी वृद्धि होती है-इसलिए वह ऊर्द्धमुख भी कहाती है और अर्पणीमे घटती, इस हेतु वह अधोमुख कही जाती है। यहा भी जैन धर्मका प्रभाव दृष्टव्य है। भगवान महावीरने भी कल्पकालके दो भेद उत्सर्पिणी और अविसर्पिणी बतलाये हैं । इनका प्रभार भी वही बतलाया गया है जो बौद्धोके उत्सर्पिणी और अप्पिणी युगोका बतलाया गया है । सचमुच नाम और भावकी सादृश्यता इस बातकी प्रकट साभी है कि म. बुद्धने अपने कालनिर्णयमें भी अपने प्रारभिक श्रद्धानके धर्मजैनधर्मसे बहुत कुछ लिया था । हा, यहा यह अन्तर वेशक है कि ना म० बुद्धने उत्सर्पिणी और अपिणी दोनोमें प्रत्येक चार २ युग बतलाये है, तब जैनशास्त्रोमे उत्सप्पिणी और अवसप्पिणी अर्थ कल्पोमें प्रत्येकमें छे काल होते लिखे है: अर्थात (१) सुखमा-सुखमा, (२) सुखमा, (३) सुखमा-दुखमा, (४) दुःखमा-सुखमा, (६) दुखमा; और (६) दुखमा-दुखमा । यह क्रम अविसर्टिपणी अर्थकल्पका है। उत्सपिणी अर्धकसमें प्रत्येक पदार्थकी उन्नति होती है, इसलिये उसका पहला काल दुखमादुःखमा है और फिर इसी क्रमसे अन्यकाल समझना चाहिये। बौद्धोने अपने उत्सपिणीके चार युग (१) कलि, (२) हापुर, (३) त्रेता, (४).और कर बतलाये है। एव उनके अपिगीके युगोंका क्रम इनसे बरअक्स है अर्थात् उसमे प्रथम युग कृत है और शेष भी इसी तरह क्रमवार है। इन युगोके नाम ब्राह्मणधर्मके 7. Ibid.
SR No.010165
Book TitleBhagavana Mahavira aur Mahatma Buddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages287
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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