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________________ - और म० बुद्ध ] [ १४७ समान हैं । इसतरह यह अनुमान किया जासक्ता है कि यहां भी बुद्धने अपनेसे प्राचीन धर्म जैन और ब्राह्मणसे उचित सहायता ग्रहण की थी। अब पाठकगण, जरा आइए म० बुद्धके बताये हुये लोकप्रलयका भी किञ्चित् दिग्दर्शन करलें । कहा गया है कि एक कल्पके प्रारंभ में वर्षा होती है - इसे 'सम्पत्तिकर - महा-मेघ' कहते हैं । यह उन सर्व व्यक्तियोंके समूहरूप पुण्यके बलसे उत्पन्न होता है, जो ब्रह्मलोकों और बाहिरी सक्कलों में रहते हैं । पहले बूदें ओसकी तरह छोटी २ होतीं हैं, परन्तु वे धीरे २ बढ़ते हुये खजूरके पेड़ इतनी बडी होजातीं हैं । वह सब स्थान जहां पहलेके 'कैललक्ष' लोक अग्निसे नष्ट हो चुके हैं, अब ताजे पानीसे भर जाते हैं । यह ध्यान रहे कि बौद्धजन पहले सातवार अग्निद्वारा मनुष्यलोका नाश होना मानते हैं । इसी तरह इप कल्पनाके प्रारंभ में यहां अग्निद्वारा नाश हुआ था। नष्ट हुये स्थान जहां जलसे भरे कि यह वर्षा बन्द हुई । वर्षाके बन्द होनेपर एक हवा चलती है, जिससे भरा हुआ पानी प्राय सूख जाता है; केवल समुद्रोके लायक ही पानी रह जाता है । इसके दीर्घकाल उपरान्त यहा शेखर (इन्द्र) का महल प्रकट होता है, जो सर्व प्रथम रचना होती है । महलके बाद नीचे ब्रह्मलोक और देवलोककी सृष्टि होजाती है । इन्द्र इसी समय आकर कमलपुष्पों को देखते है । यदि कमलपुष्प हुये तो जान लिया जाता है कि इस कलमें बुद्ध होगे । बुद्धोंके वस्त्र, कमण्डल आदे भी यहीं उत्पन्न होनाने हैं । इन्द्र पृथ्वीका अंधकार मेटकर इन वस्त्रादिको उठा ले जाता है । पहले लोकके नाश "
SR No.010165
Book TitleBhagavana Mahavira aur Mahatma Buddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages287
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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