________________
-
१४८]
[ भगवान महावीरहोते समय यहाके पुण्यात्मा जीव अभस्सर ब्रह्मलोकमें जन्म ले लेते है । वही यहां फिर बसते हैं। उनका जन्म छायारूप (Appatitional) होता है । इसलिये उनके शरीरमें देवलोकके कतिपय लक्षण यहां भी शेष रह जाते है । उन्हें भोजनकी आवश्यक्ता प्रायः नहीं पडती, वे आकाशमे उड सक्ते है। उनके शरीरकी प्रभा इतनी विशद होती है कि उस समय सूर्य और चंद्रमाकी आवश्यक्ता ही नहीं होती है । इस हेतु वहा ऋतुयें भी नहीं होती है । और न दिनरातका भेद होता है । तथापि उन लोगोमें लिङ्गभेद भी नहीं बतलाया गया है। कई युगो तक यह ब्रह्मलोकके वासी आनन्दसे इसीतरह यहाँ रहते है। उपरान्त पृथ्वीपर एक ऐसा पदार्थ उगता दिखाई पड़ता है जैसे दूधपर मलाई पड़ती है। एक ब्रह्म उसे उठाकर चाट लेता है । इसके स्वादकी चाट सबको पड़ जाती है और यह अधिक २ खाया जाता है । बस इसहीके बदौलत यह ब्रह्मलोग अपनी विशुद्धता गंवा देते है; जिससे इनके शरीरकी प्रभा मन्द पड़ जाती है। इसपर सूर्य-चन्द्र आदि प्रकाश देनेवाले पदार्थोंका प्रादुर्भाव होता है। इनकी उत्पत्ति भी वे मिलकर अपने पुण्यवलके प्रभावसे कर लेते है । वौद्ध धर्ममें नाश और उत्पत्ति व्यक्तियोके पाप और पुण्यवलके कारण होते वतलाये गये है । इसतरह सूर्य-चन्द्रद्वारा किये गये दिन रातके भेदमें रहते हुए और पृथ्वीका पदार्थ खाते हुये इन लोगोके शरीरोंकी त्वचा कड़ी पड़ जाती है, जिससे किसीका रंग काला और किसीका जरा स्वच्छ रहता है। इसपर यह आपसमें मान-घमंड करके लड़ते है। परिणामतः वह पदार्थ