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-और म० बुद्ध]
[१४५ बौद्धोसे बहुत अधिक है । बौद्धोकी उत्कृष्ट संख्या असंख्यात है; जबकि जैनोंकी सख्या इससे बढ़कर अनन्तरूप है । वुद्ध यह मानते हैं कि यह लोकप्रवाह सनातन है, परन्तु वह इस वातको भी जैनियोके साथ २ स्वीकार करते हैं कि उन देशोका नाश और उत्पाद भी होता है, जिनमे मनुष्य रहते हैं। नाशके तरीके वे तीन प्रकार बतलाते हैं अर्थात् सक्वल सातवार तो अग्निसे नष्ट होते हैं, आठवींवार पानीसे और हर ६४वी दफे हवासे । उनमें इस नाशक्रमका व्यवहार कल्पोपर नियत रक्खा है। कहा गया है
कि जिस अन्तराल कालमे मनुष्यकी आयु १० वर्षसे बढ़ते २ __ एक असंख्यकी होजाती है और एक असंख्यसे घटते २ दस
वर्षकी फिर रह जाती है वह बौद्धोंका एक अन्तःकल्प होता है । इन २० अन्तःकल्पोका एक असख्यकल्प होता है और चार असंख्य कल्पका एक महाकल्प होता है । जैनधर्ममें भी क्ल्पकाल माने गये है, परन्तु उनका परिणाम इनसे कहीं अधिक है । जैनियोने दस कोडाकोड़ी व्यवहार सागरोपमकालका एक अवसर्पिणीकाल माना है और वीस कोड़ाकोड़ी व्यवहार सागरोपमकाल-एक उत्सपिणी और एक अवसर्पिणी दोनोंका एक कल्पकाल माना है। तथापि असख्यात उत्सर्पिणी व अवसर्पिणीका एक महाकल्पकाल माना है। इनके विशद विवरणके लिए त्रिलोकसार बृहद जैन . शब्दार्णव आदि ग्रंथ देखना चाहिए । यहां तो मात्र सामान्य दिग्दर्शन कराना ही संभव है । सारांशतः कल्पकालका भेद जैन और बौद्ध मानतामे स्पष्ट है। अगाडी बौद्धशास्त्र एक अन्तःकल्पमें
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