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[ भगवान महावीर
भोगभूमिकी स्थिति हो जाती है। इसीतरह पांचवे कालमें भी मध्यम भोग की सृष्टि होती है और छट्टे कालमें उत्तम भोगभूमिकी स्थिति रहती है । इसके साथ ही उत्सर्पिणी कालका अन्त और अवसर्पिणीका प्रारम्भ हो जाता है । जिसके प्रारम्भके साथ ही अवनति क्रम चालू होता है । हम जिस कालमें रह रहे हैं यह अवसर्पिणीका पांचवा काल है । इसके प्रारम्भके तीन कालों में यहां भोगभूमि थी । भोगभूमिमें युगल दम्पति जन्म लेकर आनन्दसे जीवन व्यतीत करते थे । कल्पवृक्षोसे उनको भोगोपभोगकी सब सामिग्री प्राप्त होती थी । सूर्य चन्द्र नहीं थे । माता-पिता आदि रिश्ते प्रचलित नहीं थे । यहासे मरकर जीव नियमसे देवगतिको प्राप्त होते थे । अन्तत' तीसरे कालके अन्त होने के कुछ पहिले १६ कुलकर उत्पन्न हुये थे; जिनके समय में जिस २ बातकी तकलीफ लोगों को हुई उसकी उन्होंने व्यवस्था की, क्योकि क्रमकर कल्पवृक्ष तो ह्रासको प्राप्त होते जारहे थे । इनका विशद विवरण हमारे "संक्षिप्त जैन इतिहास " अथवा अन्य जैन ग्रथोमें देखना चाहिये। आखिर चौथे कालके प्रारम्भसे किञ्चित् पहले ही प्रथम तीर्थकर ऋषभदेवजीका जन्म होगया था | इन्ही द्वारा कर्मभूमिका प्रादुर्भाव हुआ । 1 जनताको असि, मसि, कृपि आदि कर्म इन्होने ही बतलाये । इसी समय चार वर्णोकी स्थापना होगई । जिन्होंने जनताकी रक्षाका भार लिया वे क्षत्री हुये और जो व्यवसाय व शिल्पमें व्यस्त हुये वे वैश्य कहलाये और दस्युकर्म करनेवाले शूद्रवर्णके हुये । ब्राह्मणवर्णकी स्थापना उपरान्त सम्राट् भरत द्वारा व्रती श्रावकों में से हुई । इसतरह कर्मभूमिका श्रीगणेश हुआ । उपरान्त समयानुसार हर