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। भगवान महावारपि निगन्ठस्स नाथपुत्तस्स सावका गिही ओदात बसना, ते पि निगन्ठेसु नाथपुत्तियेसु निविण्ण रूपा विरत रूपा पटिवान रूपा, यथा तं दुरक्खाते धम्म विनये दुप्पवेदिते अनिय्यानिके अनुपसम संवत्तनिके असम्मा सम्बुद्धप्पवेदिते भिन्न धूपे अप्पटिसरणे ।" ( P. T. S. Vol. III. P. 117-118)
इसका भाव यही है कि जिस समय म० बुद्ध विहार कर रहे थे उस समय पावामें निगन्य नातपुत्त (महावीरखामी)का निर्वाण होरहा था। इसके बाद निगन्य संघमें भेद खड़ा हो गया और मुनिगण यह कहते आपसमें झगड़ते विचरने लगे कि 'तुम धर्मका खरूप नही जानते वह वैसे ठीक है जैसे हम कहते हैं । इस तरह मुनिजनको आपसमें झगड़ते देखकर श्वेतवस्त्र धारी निय श्रावक बड़े खेदखिन्न होरहे थे।
ऐसा ही उल्लेख मज्झिमनिकायमें भी है, जिसका दिग्दर्शन हम पहिले कर चुके है। उपरोक्तके अगाड़ी 'संगीत सुसन्त' (एष्ट २०९-२१०)में भी यही उल्लेख है । इससे स्पष्ट है कि मूलमें जैन संघ एक था। भगवान महावीरके निर्वाणके उपरांत ही उसमे झगडा खड़ा हुआ था। कितने काल उपरांत ? यह इन उद्धरणोंमें स्पष्ट नहीं है, किन्तु केवलज्ञानियों और शायद अंतिम श्रुतकेवली तक जव दि० और खे० दोनों ही एकमत हैं तब यह स्पष्ट है कि उस समय तक यह मतभेद अथवा झगड़ा जैनसघमें खडा नहीं हुआ था। श्रुतकेवली भद्रबाहुके समयमें ही यह दुःखद घटना घटित हुई थी और वहींसे परस्पर विद्वेषबीन पड़ गया था। यह समय चन्द्रगुप्तके राज्यके अंतिम अथवा किर्चित उपरान्त कालका