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-और म बुद्ध]
[२२१ *पादन किया गया है और बतलाया गया है कि तर्कवादसे वे श्रमण
और ब्राह्मण इस सिद्धान्तको सिद्ध करते है । सो यह सब कथन भगवान पार्श्वनाथके तीर्थके मुनियोंसे लागू है । इस तीर्थके कतिपय मुनिगण प्रथम उल्लेखकी तरह आत्मवादकी सिद्धि करते प्रतीत होते हैं और चौथेमें जो . तर्कवादसे इस सिद्धांतको प्रमाणित करनेवाले मुनि बतलाये गये हैं, उनसे भाव 'वादानुपूर्वी' मुनियोंसे होना प्रतीत होता है । जैन शास्त्रोमें अलग२ प्रकारके मुनियोंका अस्तित्व प्रत्येक तीर्थकरके संघमें बतलाया गया है। भगवान पार्श्वनाथनीके संघमें इनकी संख्या इस तरह बतलाई है:"प्रथम स्वयम्भू प्रमुख प्रधान । दस गनधर सर्वागम जान ।। पूरवधारी परम उदास । सर्व तीनसै अरु पंचास ॥८३॥ सिप्य मुनीसुर कहे पुरान । दसहजार नौसे परवान ।। अवधिवंत चौदहसै सार । केवलग्यानी एकहजार ॥८४॥ विविध विक्रिया रिद्धि बलिष्ट । एकसहस जानो उत्कृष्ट । मनपर जय ग्यानी गुनवंत । सात सतक पंचास महंत ॥२८॥ छसै वादविजयी मुनिराज । सव मुनि सोलहसहस समाज || सहस छवीस अजिंका गनी एकलाख श्रावक व्रतधनी २८६"
इनमेंके अवधिज्ञानी, मन पर्ययज्ञानी और केवलज्ञानी मुनिराज पूर्वभवोका दिग्दर्शन स्वयं कर सक्ते हैं। और दूसरोको बतला सक्ते हैं। इनके उपदेशसे भव्योको श्रद्धान होना लाजमी ही है। वादानुपूर्वी मुनिजन वादद्वारा अपने पक्षकी सिद्धि अर्थात उत्त जैन सिद्धान्तकी प्रमाणिकता स्थापित करते थे। इन्हीं मुनियोंका • १. पार्श्वपुराण पृष्ठ १००.