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________________ -और म० बुंद] [२१७ इसमें यद्यपि भगवान महावीरके प्रति सद्भाव नहीं रक्खे गए हैं; परन्तु इसमें जिन सिद्धांतोका उल्लेख है वह आज भी जैनधर्ममें मिलते है । तत्वार्थाधिगम् सूत्रके ९वें अध्याय श्लो० ४१-४३४४ में अवितर्क और अविचार श्रेणिके ध्यान और वितर्क एवं वीचार शब्दोंका अर्थ क्रमशः दिया हुआ है। यह पहले दो प्रकारका शुक्लध्यान है । इसतरह जैनधर्मके प्रायः सब ही सिद्धान्त आजतक अपने प्राचीन रूपमे मिलते हैं-यह इसकी सैद्धांतिक पूर्णताका प्रत्यक्षप्रमाण है । अस्तु, 'दीघनिकाय' की टीका ‘सुमंगलविलासिनी' में भी कतिपय जैन उल्लेख हमारे देखनेमें आये है। उसमें एक स्थानपर जैनियोंकी इस मान्यताका स्पष्ट उल्लेख है कि सचित्त जलमें भी जीव है। उसमें इसका स्थापन इन शब्दोमें किया गया है:-" सो किर सीतोदके सत्तसज्जी होति । अर्थात् __ ठंडे जलमें जीव होते है। इसी कारणसे जैन मुनि शीतं जेलका व्यवहार नहीं करते हैं, क्योंकि वे अहिसाव्रतका पूर्ण पालन करते _हैं। इससे प्रकट है कि जैनियोंकी यह मान्यता बहुत प्राचीन है। उपरान्त इसी बौद्ध ग्रन्थमें अगाडी आत्मा सम्बन्धी जैन मान्यताका उल्लेख है। उसमें जैन दृष्टिसे आत्माका स्वरूप ( अरूपी अत्तों संण्णी)' अरूपी और संज्ञी (उपयोगमई-Concsious ) बत__ लाया है और यह ठीक ही है । जैन ग्रन्थों में आत्मा अपनी स्वाभाविक अवस्थामें अरूपी और ज्ञानदर्शन पूर्ण बतलाई गई है। १. हिस्टोरीकल- ग्लीनिंग्स-पृष्ट ८१. - सुमगलापिलासिनी पृष्ठ.. १६. ३ सु० वि० पृष्ठ ११८ (P. T.S)
SR No.010165
Book TitleBhagavana Mahavira aur Mahatma Buddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages287
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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