SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 232
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २१८] [ भगवान महावीरकिन्तु इसमें जो अगाड़ी 'अरोगो' (रोगरहित) बताया है। उसका भाव क्या है यह सहसा समझमें नहीं आया तो आश्चर्य नहीं किन्तु यह उल्लेख आत्माका अस्तित्व मृत्यु उपरान्त रहता है यह निर्दिष्ट करते हुये बतलाया गया है। अतएव इस अवस्थामें यह स्पष्ट हो जाता है कि बौद्धाचार्य यहांपर आत्माकी संसार अवस्थाको लक्ष्य करके कह रहा है कि इस दशामें भी वह संसार-परिभ्रमणमें रोग आदिसे अछूता रहता है। वास्तवमें जैनियोका भी यह विश्वास है कि सांसारिक दुख-सुखमे उनका आत्मा विलग है। उसे न दुःख सताता है न इंद्रियसुख आल्हाद पहुंचाता है, वह अपने स्वभावमें स्वयं पूर्ण सुखरूप है। यही भाव पूज्यपादस्वामी निन्न श्लोके द्वारा प्रगट करते हैं. 'न मे मृत्युः कुतो भीतिर्न मे व्याधिः कुतो व्यथा । नाहं वालो न वृद्धोहं न युवैतानि पुद्गले ॥२०॥ भावार्थ-'मूलमें जो 'म' आत्मा हूं, वह मैं न मृत्युका स्थान हूं, फिर भला मुझे मृत्युसे क्या भय होना चाहिये ? तथापि न मेरेमें रोगको स्थान प्राप्त है, इसलिए कोई भी वस्तु मुझे पीड़ा नहीं पहुंचा सक्ती! फिर न मैं बालक हूं, न मैं वृद्ध हूं, न मैं युवक हूं। यह सब बातें तो पुद्गलसे सम्बंध रखती है ! जैनियोंके इसी भावको बौद्धाचार्यने उक्त प्रकार व्यक्त किया है। _अगाड़ी इस ' विलासिनी ' में कहा गया है कि ' भगवान महावीरकी मान्यता है कि आत्मा और लोक ( 'अत्ताचलोकोच दोनों ही नित्य हैं। यह किसी नवीन पदार्थको जन्म नहीं देते १ इष्टोपदेश २९.
SR No.010165
Book TitleBhagavana Mahavira aur Mahatma Buddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages287
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy