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__-और म० बुद्ध ]
[१३२ नित मोहावस्थामें है। इसलिए सत्तात्मक व्यक्ति (जीव)-निसका लक्षण उपयोग संज्ञा है, इस अवस्थामें सांसारिक दुःख और पीडाको भुगतता संसारमें रुलता है। इस संसारपरिभ्रमणमें जब वह एक शरीरसे दूसरे शरीरमें जाता है तो उसके साथ सूक्ष्म कार्माण शरीर भी जाता है, जिसके कारण दूसरे शरीरमें उसका जन्म होता है। म० बुद्धके उक्त विवरणमें हमें इस सिद्धांतके विक्रतरूपमें किञ्चित दर्शन होते हैं।
अब जरा और बढ़कर बौद्धदर्शनमें यह तो देखिये कि वह कौनसी शक्ति है जो 'विज्ञान'को उसका नवीन जन्म देती है ? म० बुद्धने यह शक्ति कर्म वतलाई है। कर्ममें भी 'उपादान' इसके लिये मुख्य कारण है। इस कर्मसम्बंधमें भी डॉ. कीथसाहब हमें विश्वास दिलाते हैं कि 'इस बातपर बौद्धशास्त्र प्रायः स्पष्ट हैं। कर्मका जोर किसी रीतिसे भी टाला नहीं जासक्ता बहानेबाजी
वहां काम नहीं देती। कर्मका दण्ड अवश्य ही सहन करना पड़ेगा __ हां, उस दशामें यह निरर्थक हो जाता है जब ससार-प्रवाहकी
लड़ीको नष्ट करनेका साधन मिल गया हो। यहांपर भविष्यके लिये तो कर्म लागू नहीं हो सक्का, किन्तु गत कर्मोका कार्यमें ले आना आवश्यक है जिससे उनका महत्व ही जाता रहे। अनेक
१. म० बुद्धने भी इच्छाको-तृष्णाको दुःखका कारण बतलाया है, परन्तु उसके भावको दोनों स्थानोंपर दूसरी तरह ग्रहण किया गया है, यह प्रकट है। तथापि बुद्धने इन्द्रियोंकी संख्या, नाम और उनका विषय ठीक जैनधर्मके अनुसार बतलाया है। मनकी व्याख्या जो उनने की है वह भी सामान्यत. जैनधर्मकी व्याख्यासे मिलती जुलती है । इसके लिये तत्वार्थसूत्र अ० २ देखना चाहिये।