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-और म० बुद्ध ]
[२५९ वादका नाद घोषित करती थीं, उसकी मन्दाकिनी उस समय पूर्णताको ही प्राप्त होगी! वास्तवमें जैनसाधु और साध्वियोके जीवन धर्मप्रचारके आदर्श होते है। वे वर्षके चार महीनोंको छोड़कर शेषके सर्व दिनोंमें सर्वत्र विहार करके जनताको सच्चे सुखका मार्ग बताते हैं । यही दशा नन्दोत्तराके सम्बन्धमें प्रकट है । कितु उसने जो अपनी जीवनचर्याका विवरण दिया है, उसपर भी तनिक ध्यान दीजिये । हमारे विचारसे पहिली गाथामें तो उसने अपने ब्राह्मणपनेकी अवस्थाका उल्लेख किया है और दूसरेमे जैन उदासीन श्राविकाकी क्रियायोंका दिग्दर्शन कराया है। उदासीन श्राविकाओंको सिर मुड़ाना पडता है और वे पृथ्वीपर शयन करती एवं रात्रिभोजनकी त्यागी होती हैं । यही क्रियायें नन्दोत्तरा भी गिना रही है तथापि जो उसने जैनसाधुओंके निकट रहकर शिक्षा ग्रहण की थी, यह भी जैनशास्त्रोके अनुकूल है । जैनशास्त्रोंमें ऐसे कई उल्लेख है। इस तरह इस उल्लेखसे जैन क्रियाओका महत्व प्रकट है।
उपरान्त भद्दा (भद्रा) कुन्दलकेसाका कथानक है। यह पहिले जैनी थी। इसके सवधमे यह कहा गया है कि वह राजगृहके राज्य-कोठारीकी पुत्री थी । एक दफे वहाके पुरोहित-पुत्र सत्युकको डकैतीके अपराधमें प्राणदण्ड मिला । बधक लोग उसे शूलीपर चढ़ानेको लिये जा रहे थे। भद्दाकी दृष्टि कहीं उसपर पड़ गई और वह तत्क्षण उसपर आसक्त होगई । उसके पिताको जव यह बात मालूम हुई और पुत्रीकी अन्यथा शांति होना कठिन समझी, तब उसने बधकोंको धूंस देकर उस पुरोहितपुत्रको छुड़ा । १. Psalms of the Sisters P. 63.