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[ भगवान महावारन्तकी विकृत रूपान्तर ही हैं। इससे इस बातका समर्थन होता है कि स्याद्वादसिद्धान्त भगवान महावीरसे पहिलेका है, जैसे कि जेनियोंकी मान्यता है; और उसको संजयने पार्धनाथकी शिष्य परंपराके किसी मुनिसे सीखा था, परन्तु वह उसको ठीक तौरसे न समझ सका और विकृत रूपमें ही उसकी घोषणा करता रहा। जैनशास्त्र भी अव्यक्त रूपमे इसी वातका उल्लेख करते हैं. अर्थात् वह कहते हैं कि सनयको शङ्कायें थीं जो भगवान महावीरके दर्शन करनेसे दर होगई। यदि यह वात इस तरह नही थी तो फिर भगवान महावीर और म० वुद्धके समयमें इतने प्रख्यात मतप्रवतकका क्या हुआ, यह क्यों नहीं विदित होता? इसलिए हम जैन मान्यताको विश्वसनीय पाते हैं और देखते है कि संजय वैरत्थी पुत्र, नो मोग्गलान (मोद्गलायन) के गुरू थे यह जैन मुनि सजय ही थे। दूसरी ओर इस व्याख्याकी पुष्टि इस तरह भी होती है कि इन संनयकी शिक्षाकी सादृश्यता यूनानी तत्ववेत्ता पर्रहोकी शिक्षाओंसे बतलाई गई है। एक तरहसे दोनोमें समानता है और इस पैहोने नम्नोसूफिट्स सूफियोंसे, जो ईसासे पूर्वकी चौथी शताब्दिमें यूनानी लोगोंको भारतके उत्तर पश्चिमीय भागमें मिले थे, यह शिक्षा ग्रहणकी थी। यह जैम्नोसूफिट्स तत्ववेत्ता निर्ग्रन्थ दिगम्बर साधुओंके अतिरिक्त और कोई नहीं थे। यूनानियोंने इन जैन साधुओंका नाम 'जैम्नोसूफिट्स' रक्खा था, अतएव जैन साधुओंसे शिक्षा पाये हुये १'समन्नफलसुत्त' 'डायोलॉग्स ऑफ बुद्ध' (8. B. B.Vel II) २ हिस्टॉरकल ग्लीनिंग्स पृष्ठ ४२ । ३ हिस्टॉरीकलग्लीनिगस पृष्ठ ४२। ४ इन्सालोपेडिया बेटेनिका भाग १५ ।