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-और म० बुद्ध
(अग्निवैश्यायन)के नामसे किया है, परन्तु हम जानते हैं कि भगवान महावीरका गोत्र काश्यप था और उनके गणधर सुधर्मास्वामीका अग्निवैश्यायन गोत्र था। इस तरह महावीरजीके शिष्यकी गोत्र अपेक्षा उनका उल्लेख करके बौद्धाचार्य ने भी जैनाचार्यकी भांति गल्ती की है। अतएव इसमें संशय नहीं कि मौद्गलायन भगवान पार्श्वनाथकी शिष्यपरंपराका एक जैनमुनि था। जैनग्रन्थोमें इनके गुरुका नाम नहीं दिया गया है, परन्तु बौद्धशास्त्र इनके गुरूका नाम संजय अथवा संनयवैरत्थीपुत्र* बतलाते है । जैनशास्त्रोमें भी हमें इस नामके एक जैन मुनिका अस्तित्व उस समय मिलता है । यह चारणऋहिधारी मुनि थे और इनको कतिपय शङ्कायें थीं जो भगवान महावीरके दर्शन करते ही दूर होगई थीं । श्वेताम्बरोंके उत्तराध्ययन सूत्रमें भी एक संजय नामक जैन मुनिका उल्लेख है। ऐसी अवस्थामें जैन मुनि मौद्गलायनके गुरू संजयका जैनमुनि होना बिल्कुल सभव है और यह संभवतः चारणऋद्धिधारी मुनि संजय ही थे। इसकी पुष्टि दो तरहसे होती है। पहिले तो संजयकी शिक्षायें जो बौद्धशास्त्रोमें अंकित हैं वह जैनियोंके स्याद्वाद सिद्धा
१ जनसूत्र (S. B.E.) भाग २ XXI
* बौद्ध शास्त्रों में संजय रथीपुत्र और सजय परिव्राजक नामक दो व्यक्तियों का उल्लेख मिलता है। विद्वानोंको सशय है कि यह दोनों एक व्यक्ति थे। किन्तु महावस्तु (III P. 59) में इन दोनों व्यक्तियों को एक ही बतलाया है । अतएव यहा परिव्राजकके अर्थ साधारण विचरते हुए भिक्षुके समझना चाहिये । इसी भाव, यह शब्द पहले व्यवहृत होता था। देखो हिस्टॉरीकल ग्लीनिस पृष्ठ ९ २महावीर चरित्र पृष्ठ २५५ १३ उत्तराध्ययन (S. B. E.) पृष्ठ ८२ ॥
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