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-और म० बुद्ध] यूनानी तत्ववेत्ता पैर्रहो की शिक्षाओंसे उक्त संजयकी शिक्षाओंका सामञ्जस्य बैठ जाना, हमारी उक्त व्याख्याकी पुष्टिमें एक और स्पष्ट प्रमाण है। इस तरह यह तीसरे प्रख्यात मतप्रवर्तक जैन मुनि थे इसमें संशय नहीं है, अतएव इनकी गणना 'अज्ञानमत'में नहीं होसक्ती. और न यह कहा ना सक्ता है कि इनकी शिक्षाओंका संस्कृतरूप - भगवान महावीरका स्याहाद सिद्धान्त है; जैसे कि कतिपय विद्वान् खयाल करते हैं। 22730
. चौथे मत प्रवर्तक अजित केशकम्बलि थे। यह वैदिक क्रियाकाण्डके कट्टर विरोधी-थे और पुनर्जन्म सिद्धान्तको अस्वीकार करते थे। इनका मत था कि.लोक पृथ्वी, जल, अग्नि और वायुका .समुदाय है और आत्मा पुगलके कीमयाई-ढंगका परिणाम है। इन चारों चीजोंके विघटते ही वह भी विघट जाता है । इसलिए वह कहता था कि नीव और शरीर एक हैं ("तम् जीवो तम् सरीरम् ") और प्राणियोंकी हिसा करना दुष्कर्म नहीं है । इसकी इस शिक्षामें भी जैन सिद्धान्तके.व्यवहारनय अपेक्षा आत्मा और पुद्गलके समिश्रणका विकृतरूप नजर आता है । भगवान- पार्श्वनाथने इस सिद्धान्तका प्रतिपादन किया था ही, उसहीके आधार पर अजितने अपने इस सिद्धांतका निरूपण किया, जिसके अनुसार हिसा करना भी बुरा नहीं था। विद्वान लोग अजितको ही भारतमें केवल पुगलवादका आदि प्रचारक ख्याल करते हैं। चार्वाक मंतकी सृष्टि
१ अनसुत्र (S. B.E.) भाग २. भूमिका XXVII. : २.हिस्टॉरीकलग्नीनिंग्स पृष्ठ ३५॥ ३ अनसूत्र (S. B.-E.) भाग २ भूमिका XXIII.