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________________ -और म० युद्ध ] [२३९ फिर वह क्यों उस सुगम मार्गको त्यागकर कठिन मार्गको ग्रहण करते? उस दशामें तो म० बुद्धका मध्यमार्ग उनके लिये पर्याप्त-था। तिसपर यदि यही सुगमता पहलेसे श्रमणसम्प्रदायमें प्रचलित होती तो म० बुद्ध एक अलग सुगम वस्त्रधारी संप्रदाय किस लिये स्थापित करते? इसके साथ ही यदि यह प्रभेद वास्तवमें था तो फिर जैनधर्मकी वह मान्यता कहां रही कि उसका सनातनरूप एक समान है ? तिसपर इस घटनाका उल्लेख श्वे० के उत्तराध्ययनसूत्रके अतिरिक्त किसी प्राचीन ग्रन्थमें नहीं है और और यह उत्तराध्ययनसुत्र अगबाह्य रचना है।' इस दृष्टिमें इसके कथनपर सहसा विश्वास नही किया जासक्ता । उसका कथन आचारांगसूत्रके और बौद्धशास्त्रोंके उक्त कथनके प्रतिकूल है । तिसपर उसमें जो क्षुल्लक अधिकारके बाद ऐलक नामक अधिकार दिया है, उससे स्पष्ट है कि प्राचीन क्रम साधु दशाका क्षुल्लक, ऐलक और फिर अचेलक निम्रन्थरूप था । श्वे० आचार्यने यहां यद्यपि क्षुल्लक, ऐलकका उल्लेख किया है परन्तु उनने ऐलकका अर्थ एक 'भेड़ (Ram)से किया है और उसके उदाहरणसे साधुको शिक्षा* दी है। खे० शास्त्रोके इन उल्लेखोंसे स्पष्ट है कि श्वे. आचार्योंसे परोक्षरूपमें 'प्राचीन मार्गका उल्लेख करके अपनेको लांछित होनेसे बचा लिया है और उनकी इन सब बातोंसे मुनियोका अचेलक वेष स्पष्ट हो जाता है । इस दशामें भगवान पार्श्वनाथजीकी परम्पराके मुनि नग्नावस्थामें रहते थे यह प्रकट हो जाता है । रहा चार व्रतोंका १. सार्थसूत्रम् (S. B. J ) भाग २ पृष्ठ १७. * उत्तरा ध्ययनसूत्र (UPSALA Ed) पृ. ८८-८.
SR No.010165
Book TitleBhagavana Mahavira aur Mahatma Buddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages287
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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