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-और म०, बुद्ध.]
[१४३ ___ जहांतक एक सूर्य अथवा चन्द्रमाका प्रकाश पहुंचता है वहांतकका प्रदेश एक 'सक्कल' कहलाता है । प्रत्येक सक्कलमें पृथ्वी, खण्ड, प्रान्त, द्वीप, समुद्र, पर्वत आदि होते हैं और उसके मध्यमें 'महामेरु' पर्वत होता है। प्रत्येक सक्कलका आधार 'अनताकाश' है। जिसके ऊपर 'वापोलोव' अर्थात् वायुपटल ९६० योजन मोटा है। वापोलोवके बाद नलपोलोव है जो ४८०,००० योजन मोटाईका है। ठीक इसके ऊपर महापोलोव अर्थात् पृथ्वी है जो २४०,००० योजन मोटी है। इस तरह प्रत्येक सक्कल अर्थात क्षेत्रको म० बुद्धने तीन प्रकारके पटलोंसे वेष्टित वतलाया था। यहां भी जैनसिद्धांतकी सादृश्यता दृष्टव्य है । अगाडी पाठक देखेंगे कि जैनसिद्धान्तमें भी लोकको तीन वलयोसे वेष्टित किस तरह बतलाया गया है। महामेरु जैनधर्मका सुमेरु पर्वत प्रतीत होता है। वौद्ध इसे १६८००० योजन ऊंचा और इसके शिखिर पर 'तबुतिश' नामक देवलोक बतलाते है । जैनियोका सुमेरुपर्वत एक लाख योजन ऊंचा है और उसकी शिखिरके किञ्चित अन्तरसे स्वर्ग लोकके विमान प्रारंभ होते बताये गए हैं। इससे एक बाल बराबर अन्तर पर सौधर्म वर्गका विमान है। यहां भी सादृश्यता दृष्टव्य है। उपरान्त पत्येक सक्कल या पृथ्वीमें चार द्वीपकी गणना बौद्धशास्त्रोमें की गई है अर्थात् (१) उत्तर कुरुदिवयिन जो महामेरुकी उत्तर ओर चौकोंने ८००० योजनके विस्तारका है, (२) पूर्व विदेश-जो महामेरुकी पूर्व ओर अर्धचद्राकार ७००० योजन विस्तारका है। (३) अपरगोदान, जो।।
१ Haidy's Manual of Buddhism p. p. 2-3... 2. Ibid.