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[-भगवान महावीर
व्यस्त रहते थे । ' इसी कारण म० बुद्धने इन साधुओं को इस रोगसे छुडाकर आत्मस्थितिको प्राप्त करानेके लिये सैद्धांतिक विवेचनका सर्वथा विरोध किया। विरोध ही नही प्रत्युत उसको आत्मोनतिके मार्ग में अर्गला खरूप घोषित किया । यह बतलाया कि वादविवादमे आत्मशुद्धि नहीं है । स्पष्ट कहा:
'या उन्नतीसास्स विघातभूमि, मानातिमानम् वदते - पनयेसो । एतमपि दिसवा न विवादयेथ, नहि तेन सुद्धिम् कुसलवदंति ॥ ८३० || सुत्तनिपात ॥*
भावार्थ - " जो वाद एक समय वादीके हर्षका कारण है, वही उसके परास्त होनेका स्थल होगा, इसपर भी वह मान और घमंडके
१. “ There were teachers teachers or sophists who spent eight or nine months of every year wandering about precisely with the object of engaging in conversational discussions on matters of ethics and philosophy, nature lore and mysticism. Like the sophists among the Greeks, they differed very much in intelligence, in ealnestness and in honesty "-Buddhist India P. 141. भगवान महावीर के धर्ममें भी कोरे सिद्धान्तिक वादविवादको दृष्टिसे देखा गया है। जैनाचार्य श्री सिद्धसेन दिवाकरके निम्न श्लोक इसी बातको प्रकट करते है:
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क्व च तत्त्वाभिनिवेश क्व च संरम्भातुरेक्षण वदनम् । क्व च सा दीक्षा विश्वसनीयरूपतानृजुर्वाद ॥ २ ॥ अन्यत एव श्रेयास्यन्यत एव विचरन्ति वादि वृषाः । वाकूसरम्भः कचिदपि न जगाद सुनि शिवोपायम् ॥ ७ ॥
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