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-और म० बुद्ध ]
[६७ धारण करनेवाले उन भगवानको उस राजाने पूज्य स्थानपर विराजमान कर अर्घादिकसे उनकी पूजा की। उनके चरणकमलके समीपवर्ती एथिवीका भाग गंधादिकसे विभूषित किया और बड़ी विशुद्धिके साथ उन्हें इष्ट अर्थको सिद्ध करनेवाला परमान्न समर्पण किया।"
भगवान पारणा करके पुनः वनमें आकर ध्यानलीन और तपश्चरण रत होगये । 'वहांपर निशंकरीतिसे रहकर उन्होंने अनेक योगोंकी प्रवृत्ति की और एकात स्थानमें विराजमान होकर बारबार दश तरहके धर्मध्यानका चितवन किया । ' उपरान्त विचरते हुये वे उज्जयनीके निकट अवस्थित अतिमुक्तक नामक श्मशानमें पहुचे
और वहां प्रतिमायोग धारण करके तिष्ठ गये । उसी समय एक रुद्रने आकर उनपर घोर उपसर्ग किया, किन्तु भगवान जरा भी अपने ध्यानसे चलविचल नहीं हुये । हठात् रुद्रको लज्जित होना पड़ा और उसने भगवानकी उचित रूपमें संस्तुति की। सचमुच जो धीर वीर होते हैं वे इस प्रकार उपसर्ग आनेपर उद्देश्य-पथसे विचलित नहीं होते है। कितनी ही बाधायें आयें, कितने ही संकट उपस्थित हो, और कितने ही कण्टक मार्गमें बिछे हों; परन्तु धीर वीर मनीषी उनको सहर्ष सहन करके अपने इष्ट स्थानपर पहुंच जाते हैं । उन्हें कोई भी इष्ट पथसे विचलित नहीं कर सत्ता ।
भगवान महावीर परम धीरवीर गंभीर महापुरुष थे। वास्तवमें वे अनुपमेय थे । उन्होने नियमित ढंगसे वाल्यपनेके नन्हें नीवनसे संयमका अभ्यास किया था । क्रमानुसार उसमें उन्नति करते हुये वे उसका पूर्ण पालन करनेके लिये परम दिगम्बर मुनिभेषमे सुशो
१. उत्तरपुराण पृष्ठ ६१२-११३.