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________________ - ६६] [ भगवान महावीर" अथ भट्टारकोप्यस्मादगात्कायस्थितिं प्रति । कुलग्रामपुरीं श्रीमत् व्योमगामिपुरोपमं ।। ३१८ ॥ कूलनामा महीपालो दृष्ट्वा तं भक्तिभावितः। प्रियंगुकुममांगाभः त्रिः परीत्य प्रदक्षिणं ।। ३१९ ॥ प्रणम्य पादयोki निधि वा गृहमागतं । प्रतीक्ष्यार्घादिभिः पूज्यस्थाने मुस्थाप्य मुव्रतं ।।३२०॥ गंधादिभिर्विभूष्यैतदपादोपांतमहीतलं । परमानं विशुद्ध्यास्मै सोदितेष्टार्थसाधनं ॥ ३२१ ॥" उत्तरपुराण । अर्थात्-"अथानंतर पारणाके दिन वे भट्टारक महावीरस्वामी आहारके लिये निकले तथा स्वर्गकी नगरीके समान कुलग्राम नामकी नगरीमें पहुंचे । प्रियंगुके फूलके समान (कुछ लालवर्णी) कातिको लेनेसे युक्तिसगत बैठता है, किन्तु इस दशामें कुल्नएका पता लगाना शेष रहता है। इसी कारण हमने आपके इ५ मतसे असहमतता प्रकट की थी। परन्तु अव विशेष अध्ययनके उपरान्त यह ज्ञात हुआ है कि उस समय कुलका भाव शब्दार्थम प्रायः पश या गणका लिया जाता या। वौदोंके शाखोंमें हमें ऐसे ही उदाहरण मिलते है। 'थेरगाथा में कई स्थलोपर 'कुलगेहे शनका व्यवहार हुभा मिलता है । इसका अनु. वार मिज हीस डेविड्सने Clansman's family किया है। (See The Psalts of Brethern. P.51) इस अपेक्षा यह स्पष्ट है कि कुलनगर भगवान महावीरके कुल अथवा गणका नगर था और कूलप भी उसी गणके एक राजा थे, कि यह हमको मालूम ही है कि शादशी, लिच्छवि आदि कुल वाजयन गराज में सम्मिलित थे और वे लोग राजा कहलाते थे। इसीलिये दि० जेन ग्रंथो में जो उक्त प्रकार उल्लेख है यह गणराज्यापेक्षा है।
SR No.010165
Book TitleBhagavana Mahavira aur Mahatma Buddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages287
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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