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________________ -और म० बुद्ध ] [ १८१ 'कितना नीरस है ! उसमें पगपगपर विविध संशयात्मक विषयों और भयानक ध्येयसे विचलित करनेवाले कन्टकोंका समागम होता है। किन्तु भगवान महावीरका अपूर्व साहस और शौर्य इन सब कठिनाइयोंपर विनयी हुआ था। उनको आत्माकी अपूर्व ज्ञानादि शक्तियोंमें दृढ़ श्रद्धान था। उसीके अनुरूप उन्होंने नियमित ढंगसे "उस परमोत्कृष्ट अवस्थाको प्राप्त करनेके अतुल प्रयत्न किये थे। परिणामतः वह ज्ञान एवं प्रकाशके सनातन स्थानको प्राप्त हुए थे। इस सर्वज्ञावस्थामें उन्होंने वस्तुस्थितिरूपमें वैज्ञानिक रीतिसे प्रत्येक पदार्थका निरूपण किया था, जिससे सर्वप्रकारकी शंकाओंका अन्त होकर बुद्धिकी सतुष्टि होगई थी। उनके वैज्ञानिकधर्मोपदेशमें प्रत्येक आत्माकी स्वाधीनता सिद्ध हो गई थी। प्रत्येक प्राणीको अपने ही शुभाशुभ कर्मोंमें सुख-दुःखका कारण प्रतीत होगया था और यह भी भान होगया था कि वे प्रत्येक अपने ही पुरुषार्थके बल परम सुखी होसक्ते हैं । अन्य कोई उनको सुखी नही बना सक्ता । जिस समय वह स्वयं परावलंबिताकी उपेक्षा करके स्वावलम्बी बनकर सन्मार्गका अनुसरण करेगा तब ही उसको आनंदमय दशाका अनुभव प्राप्त होगा। परतंत्रताको नष्ट करना ही उसमें मुख्य था। इसके साथ ही उनका उपदेश व्यक्तिको उदारताका पाठ 'पढ़ानेवाला था। हृदयसंकीर्णता बुरी है! एकान्त दृष्टि मिथ्या है। अनेकांतका आश्रय लेना उपादेय है। अनेकांतीके निकट सर्व मतोंके आपसी विरोध और उल्झी गुत्थिया सहजमें सुलझ जाती हैं। तथापि उदार दृष्टिको रखते हुये भी कोरी बाह्य क्रियायोंसे पूर्ण कर्मकाण्ड अथवा इंद्रियलिप्साके मार्गमें फंसा रहना भी कार्यकारी
SR No.010165
Book TitleBhagavana Mahavira aur Mahatma Buddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages287
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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