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[भगवान महवोरनिमित्त जब जाते थे तब वे जल रखनेके बरतन साथमें ले जाने लगे । लोग कहने लगे कि यह तो तित्थियोंकी तरह करते हैं। यहां भी तित्थिय शब्दका व्यवहार जैनसाधुके लिए हुआ प्रतीत होता है । जैनसाधु जब आहारके लिए जाते हैं तंब वे कमण्डलु, (प्रासुक जलके लिए बरतन) और पीछी साथमें रखते है। इसतरह जहां भी चौडग्रंथोंमे 'तित्थिय' शब्दका व्यवहार किया गया है वहां उसका भाव जैनमुनिसे ही प्रमाणित होता है, जैसा कि हम देखते हैं । और इस शब्दका व्यवहार जो 'निगन्थ शब्दके साथ किया गया है उसका भाव यही है कि वह भगवान महावीरके संघसे पहलेके जैनमुनियों के लिये व्यवहृत हुआ है।
अब रहा ' अभिधम्म' पिटक सो इसके ग्रन्थोंको देखनेका अवसर हमें नहीं मिला है और हम उनके सम्बन्धमें कुछ कह भी नहीं सक्ते है । अनुमानतः उनमें जैन उल्लेखोका होना बहुत कम समवित है तो भी 'चुल्लनिस' में कहा गया है कि 'निर्ग्रन्थ श्रावकोंके देवता निर्घन्य हैं। (निगन्ठ सावकानाम् निगन्ठो देवता) इस तरह बौद्धोंके पिटकग्रन्थोमें हम जैन उल्लेखोका दिग्दर्शन करते है। इनके अतिरिक्त अशोकके उपरांतका रचा हुआ वौद्धसाहित्य भी बहुत है । उसमें भी देखनेसे हमें जेन उल्लेख मिल जाते है।
इसी अनुरूप आर्यसुरकी ' जातककथाओं में भी हमें जैन उल्लेख मिलते है। उनकी 'घटकथा' में, जहां मदिरापानके निषेधका विवेचन है, कहा गया है:--- • १. मूलाचार पृ. १३०. २. पृष्ठ १७३-१०४ । ३ S, B. Br Vol IP.145.