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इसके अतिरिक्त श्रीमान् डॉ. विमलचरण लॉ० एम० ए०, वी० एल०, पी एच० डी०, एफ० आर० हिस्ट० एस० (लंडन) वकील व जमीन्दार कलकत्ताने जो अंग्रेजीमें प्रस्तावना लिख देनेकी उदारता दिखाई है, उसके लिए हम उनके बडे आमारी है। आपने प्रस्तुत पुस्तकके महत्वको प्रकट करते हुये चौद्ध और जैनधर्मके कतिपय सिद्धांत-भेदोंको परिमित शब्दोंमें समुचित रीतिसे स्पष्ट कर दिया है। आप बतलाते है कि जैनधर्मका आकाश द्रव्य बौद्ध धर्ममें नहीं मिलता है। कर्मसिद्धात यद्यपि जैन और बौद्धधर्मों में स्वीकृत है, परन्तु जैनधर्ममें वह एक पौगलिक पदार्थ है और बौद्धधर्ममें केवल एक नियम मात्र ही है । डॉ० सा०का भी भाव केवल बाह्य सदृशताको बतलानेका है। जीव-अजीव तत्त्व बौद्धधर्ममें जैनधर्मसे विरुद्ध अर्थको लिए हुए बतलाये है। चौद्धधर्ममें जीवसे भाव 'प्राण' के और अजीवसे प्राणहीनके हैं । आश्रव तत्वके भाव भी दोनो धर्मोमे विभिन्न हैं। जैनधर्ममें कर्मवर्गणाओका आगमन आश्रव बतलाया गया है, जब कि बौद्धधर्ममें इसके माने 'पाप' (Sin)के लिये गए हैं । जैनधर्मका 'बंध' तत्व बौद्धधर्मके "सवर" तत्वके समान कहा गया है। बौद्धधर्ममें 'बंध' संयोजनाके भाव व्यवहृत हुआ मिलता है । जैन 'निर्जरा' तत्त्वके समान कोई तत्त्व बौद्धदर्शनमें नहीं है । जैनियोके 'मोक्ष' तत्त्वका भाव भी बौद्धधर्ममें कहीं नही मिलता है । जैनियोंके धर्मास्तिकाय' द्रव्यंकी समानता डॉ० मा० प्रायः बौद्धोंके 'पटिच्चसमुप्पाद' (Patrccasamuppada) से करते है । यह केवल बाह्यरूपमें भले ही हो, वैसे यह द्रव्य केवलं जैनदर्शनकी ही अनूठी वस्तु