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[ भगवान महावीरशुद्धोदन उन्हीके उपासक हो। डॉ० स्टीवेन्सन साहब इस ही मतकी पुष्टि अपने “ कल्पसूत्र और नक्तत्व " की भूमिकामें करते है। इसके साथ ही राजा शुद्धोदनके गृहमें जैनधर्मकी मान्यता थी इसकी पुष्टि बौद्धग्रन्थ 'ललितविस्तर 'के इस कथनसे भी होती है कि 'बाल्यावस्थामे बुद्ध श्रीवत्स, स्वस्तिका, नन्द्यावर्त और वर्तमान यह चिन्ह अपने शीशपर धारण करता था।'' इनमे पहिले तीन चिन्ह तो क्रमश गौतलनाथ, सुपार्श्वनाथ और अर्हनाथ नामक जैन तीर्थकरोंके चिन्ह है और अतिम वर्डमान स्वयं भगवान महावीरका नाम है । अतएव यह कहा जासक्ता है कि राजा शुद्धोदन भगवान पार्श्वनाथके तीर्थके जैन श्रमणोंके भक्त थे । इन्हीं जेन श्रमणोकी उपासना भगवान महावीरके पिता राजा सिद्धार्थ किया करते थे।" इस प्रकार दोनों समकालीन युगप्रधान पुरुषोंके पितृकुलका विवरण है।
जैनीज्म-दी भफैिथ ऑफ अशोक। २ जैनसुत्र (S. B.E) भाग : पृ० १९४।अव यह विल्कुल प्रमाणित होचुका है कि जैनधर्मका अस्तित्व भगवान महावीरके पहिले भी था। बौद्ध ग्रन्यों में इसका उल्लेख 'निगन्थ के धर्मरूपमें किया गया है, वह इसका साक्षी है। जैसे कि डॉ. जैकोवीने जैन सूत्रोंकी (S. B.E.) भूमिकामे प्रमाणित किया है । मुत्तनिपात (S. B. E.) की भूमिकांसे यह स्पष्ट है कि उस समय मुख्यत. दो सम्प्रदाय श्रमण और ब्राह्मणोकी थीं। मुत्तनिपातमें चार प्रकारके श्रमण बताये है। इनमें प्रारम्भके तीन ठीक वही है जो जैनियोंके पंचपरमेष्ठियों में अईत आचार्य, उपध्याप और साधु बताये गये है । तथापि जैनधर्म समणधर्म कहलाता था यह भी ज्ञात है (कल्पसूत्र पृ० ८३) अतएव इस तरह भी जैनधर्मका अस्तित्व भगवान महावीरसे प्राचीन प्रमाणित होता है । चौथे प्रकारके जो श्रमण मुत्तनिपातमें बताये है, वह इतर श्रमणआजीविकादि समझना चाहिये।