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________________ -और म० बुद्ध ] [१३७ भावोंका कारण है और शुद्ध निश्चयनयसे वह पवित्र स्वाभाविक दशाका कारण है। इसप्रकार उक्त विवेचनसे यह स्पष्ट है कि संसार अवस्थामें भटकती हुई आत्मा अपनी खाभाविक अवस्थाके गुणोंका उपभोग करने में असमर्थ है। इसकी अशुद्ध अवस्थामें राग, द्वेष आदि जैसे विभाव उत्पन्न होते रहते हैं, जो इसके सांसारिक बन्धनको और भी बढ़ाते हैं । भगवद् कुन्दकुन्दाचार्य यही बतलाते हैं:'भावनिमित्तो वन्धो भावोरदि रागद्वेषमोहजुदो।' अर्थात-वन्ध भावके आधीन है जो रति, राग, द्वेष और मोहकर संयुक्त है । अतएव इस लोकमें भरी हुई कर्मवर्गणाओंको जो आत्माकी ओर आकर्षित करते हैं वह भाव हैं, अर्थात् मिथ्यादर्शन, अवरति, प्रमाद, कषाय और मन, वचन, कायरूप योग। यही भाव कर्मबद्ध आत्माको शुभ और अशुभ क्रियाओंके अनुसार पाप और पुण्यमय कर्माश्रवके कारण हैं । इस तरहपर कर्म मुख्यता दो प्रकारका है:-(१) भावकर्म (२) और द्रव्यकर्म । आत्मामें उदय होनेवाले भाव भावकम हैं और जो कर्मवर्गणायें उसमें आश्रवित होती हैं वह द्रव्यकर्म हैं। यह कर्मोका आगमन 'आश्रव' कहलाता है। यह जैनसिद्धान्तमें स्वीकृत सात तत्वोमें तीसरा तत्व है । जीव और अजीव प्रथम दो तत्व है। इस सैद्धान्तिक विवेचनमें जिस प्रकार उक्त तीन तत्व प्राकृत १. तत्वार्थसत्र (S. B. J. Vol. II.) पृष्ठ १५५. बौद्धोके मज्झिमनिकाय (P. T. S. Vol. I. P. 372) में भी जैनियोके इस योगका उल्लेख है। -
SR No.010165
Book TitleBhagavana Mahavira aur Mahatma Buddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages287
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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