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-और म० बुद्ध ]
[२६३ कैसे उनका फल भुगता, फिर इस भवमें साकेतके वणिकपुत्रसे उसका विवाह हुआ, पति रुट हुवा, घरसे निकाली गई, पितृगृह आई, पुन. पुन. विवाह हुये, अन्ततः जिनदत्ताके निकट उसने दीक्षा ग्रहण की यह सब उसने कहा। इस विवरणमें एक स्थलपर निम्न शव्द आये हैं:" But of my father I,
W ceping and holding out clasped hands, be sought : 'Nay' but the cril Karma I have done, That would I expiate and wear away 431"
भावार्थ-उसने अपने पितासे रोकर और हाथ जोडकर कहा कि 'नहीं, पितानी, मैंने जो अशुभकर्म उपार्जन किया है उसकी निर्जरा अव मुझे (निज्जरेस्सामि ) कर लेने दीजिये । यही कह कर वह साध्वी होगई थी।'
इस कथामें कर्मके प्रभावको व्यक्त करनेका प्रयास है जो जैनधर्ममें मुख्य स्थान रखता है। जैनकथाओमें पूर्वकृत कर्मके फल भुगतनेका चित्रचित्रण विशेष मिलता है तथापि जो यहां कर्मोंकी निर्जरा करनेकी घोषणा है, वह स्पष्ट कर देती है कि यह कथा जैनसे सम्बन्ध रखती है। ऋषिदासी, जिनदत्ता ये नाम भी जैनियोके समान हैं इस कारण यही प्रतीत होता है कि यह कथा जैनियोंकी है । निर्जरा तत्व बौद्धधर्ममें स्वीकृत नहीं है, प्रत्युत म० बुद्धने जैनियोंके इस तत्वकी तीव्र समालोचना 'देवदत्त सुत्त' में की है। यही मत 'थेरीगाथा' की सम्पादिका श्रीमती मिसिस हिसडेविडसका है। आप इस कथाके विषयमें लिखती हैं कि:--
१. Psalms of the Sisters P. 156. २. मज्झिमनिकाय भाग २ पृष्ठ २१४॥
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