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[ भगवान महावोरइस अपेक्षा दिगम्बर दृष्टिसे आर्यिकाको केशलोंच करनेका अधिकार प्रमाणित होता है। श्रीपद्मपुराणनी (पृ. ८८३) में सीताजीको दीक्षा लेते समय केशलोच करते लिखा है अतएव बौद्धशास्त्रका यह उल्लेख भी यथार्थता लिए हुए है।
__ इसके अतिरिक्त 'थेरीगाथा मे अन्य कोई उल्लेख स्पष्टतः जैनधर्मके संबंध नहीं है, किन्तु 'इसिदासी' (ऋषिदासी) शीर्षक नो कथा दी हुई है, वह अवश्य ही जैनदंगकी मालूम होती है। वह इस प्रकार है, "ऋषिदासीने पूर्वभवमें व्यभिचारमय जीवन व्यतीत किया था। इसलिये इस पापके कारण उसे तीन भव पशु योनिमें, एक नपुंसक रूपमें और दो स्त्रीलिंगके धारण करने पड़े। उपरान्त वह उज्जैनीके एक प्रख्यात , धनी और धर्मात्मा वणिकके यहां पुत्री हुई थी। यहां इसका नाम ऋषिदासी रक्खा गया था। जब वह पुत्री हुई तब उसके पिताने उसका विवाह एक सुयोग्य वणिकपुत्रके साथ कर दिया। एक मास तक वह अपने पतिके साथ अच्छी तरह रही पश्चात् उसके पूर्व कर्मके फल स्वरूप उसका पति उससे विरक्त होगया और उसे घरमेंसे निकाल बाहर किया। वह अपने पितृगृह पहुंची। वहां उसके पिताने उसका विवाह फिर कर दिया, किन्तु फिर भी उसकी उसके पतिसे न पटी। इसप्रकार बारवार विवाह कर देने और निकाली जानेसे वह धवड़ा गई और उसने जिनदत्ता नामक थेरी (साध्वी)से दीक्षा ग्रहण कर ली। इस दीक्षित अवस्थामें एक दिवस वह पटनामें आहार ग्रहण - करके, गंगा तटपर आकर बैठ गई और वहां अपनी साथिन भिक्षुणीसे अपनी पूर्व कथा कहने लगी। किसतरह पूर्वभवमें उसने पाप किये,