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-और म० बुद्ध ]
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इसप्रकार यह कथा है । इसमें वर्णित जैनआर्यिकाओंकी क्रियाओपर हमें ध्यान देना चाहिये । नन्दोत्तरा और इस भद्दाकी जीवनक्रियाओंमें अन्तर है। इसका कारण यही है कि नन्दोत्तरा तो उदासीन श्राविका थी और भद्दा आर्यिका थी। वह जेनाचार्यसे परमोत्कृष्ट दीक्षा देनेका अनुरोध भी करती है । इससे प्रकट है कि जैन संघमें स्त्रियोंके साधुनीवनकी भी कक्षाएं नियत थी । यह जेनशास्त्रोके सर्वथा अनुकूल है। जैनसंघमे चार कक्षाएं स्थापित थीं, जैसे कि आन भी है, अर्थात् (१) मुनि, (२) आर्यिका, (३) श्रावक और (४) श्राविका । यह श्रावक और श्राविकायें उदासीन गृहत्यागी ही होते थे। अस्तु, अगाडी जो वाल नोंचनेकी वाचत कहा गया है, सो श्वेतांबर संप्रदायकी वाबत तो डॉ० जैकोबी प्रकट करते हैं कि शायद उनके यहां यह नियम नहीं है' पर दिगम्बर संप्रदायमें मुनि और आर्यिकाके मूलगुणोमें अन्तर नहीं है । उनके उत्तरगुणोंमें परस्पर अन्तर है । प्रायश्चित्तविधानके निर्णयमें 'छेदशास्त्र'का निम्नश्लोक यही प्रकट करता है:'यथा श्रमणानां भणितं श्रमणीनां तथा च भवति मलहरणं । वर्जयित्वा त्रिकालयोग दिनप्रतिमां छेदमूलं च ॥
'अस्यार्थः-यत्प्रायश्चित्तं ऋषीणा यथा तेन विधिना आर्यिकाणां दातव्यं परं किन्तु त्रिकालयोग सूर्यप्रतिमा न भवति । उत्तर गुणानां समाचारो न भवति । केन कारणेन मूलच्छेदे नाते सति उपस्थापवायां न याति ।
१. जैनसूत्र ( S. B.E. ) भाग २ पृष्ठ १८ फुटनोट. २. प्रायश्चित्तसंग्रह (मा० प्र०) पृष्ठ ९८.