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________________ ९८] [ भगवान महावीरस्वातियोगे तृतीयेद्धशुरुध्यानपरायणः । कृतत्रियोगसंरोधसमुन्छिन्नक्रियं श्रितः ।।५११॥ हताघातिचतुष्कः सन्नशरीरो गुणात्मकः । गता मुनिसहस्रेण निर्वाणं सर्ववांछितं ॥२१॥" भावार्थ-" विहार करते २ अन्तमें वे (भगवान) पावापुर नगरमे पहुचे और वहाके मनोहर नामके वनमे अनेक सरोवरोंक मध्य महामणियोंकी शिलापर विराजमान हुये । विहार छोड़कर (योगनिरोधकर ) निराको वाते हुए वे दो दिन तक वहा विराजमान रहे और फिर कार्तिक कृष्णा चतुर्दशीकी रात्रिके अंतिम समयमें स्वाति नक्षत्रमें तीसरे शुक्लध्यानमे तत्पर हुये । तदनन्तर तीनो योगोंको निरोधकर समुच्छिन्नक्रिया नामके चौथे शुक्लध्यानका आश्रय उन्होंने लिया और चारो अघातिया कर्मों को नाशकर शरीर रहित केवल गुणरूप होकर एकहजार मुनियोके साथ सबके द्वारा वाञ्छनीय ऐसा मोक्षपद प्राप्त किया।" इसप्रकार मोक्षपदको प्राप्तकर पुरुषार्थके अंतिम अनन्तसुखका उपभोग वे उसी क्षणसे करने लगे। भगवानके इस पतिम दिव्य अवसरके समय भी स्वर्गलोकके इन्द्र और देवतागण आये थे.और उन्होने मोहको नाश करनेवाले भगवानके शरीरकी पूना वंदना की थी। इस समय भी अलौकिक घटनायें घटित हुई थी और अंधेरीगत्रिमें एक अपूर्व प्रकाश चहुओर फैल गया था । अन्ततः उन देवोंने उस पवित्र शरीरको अग्निकुमार देवोंके इन्द्र के मुकुटसे प्रगट हुई अग्निकी शिखामें स्थापन किया था। इसी अवसरपर १. उत्तरपुराण पृष्ठ.७४४-७४५.
SR No.010165
Book TitleBhagavana Mahavira aur Mahatma Buddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages287
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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