________________
- और म० बुद्ध ]
[ ९७
भूमिका) इन्डोचाइना (Indo- China ) में भी जैनधर्मके अस्तित्वके चिन्ह मिलते है | वहांके सन् ९१८ के एक शिलालेखमे राजा भद्रवर्मन तृतीयको जिनेन्द्र के सागरका एक मीन लिखा है तथा जैनाचार्यकृत काशिकावृत्ति व्याकरणका उसे पारगामी बताया है । ( इंडि० हिस्टा • क्वार्टर्ली भाग १ ० ६०९) तथापि जावासे एक ऐसी मूर्तिके दर्शन वि० वा० चम्पतरायजीने वरलिनके अजायब घरमें किये हैं, जो जैन मूर्तियो के समान है । अतएव इन थोडेसे उदाहरणोंसे स्पष्ट है कि जैनधर्म भारतमें ही सीमित नहीं रहा था । बौद्ध धर्मकी तरह वह भी एक समय विदेशो में फैला था ।
इसप्रकार दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनोंही इस बातको प्रगट करते हैं कि भगवान महावीरकी मोक्षप्राप्तिका स्थान पावा है । यह नगरी धनसम्पदामे भरपूर मल्ल राजाओकी राजधानी थी ।' यहाके लोग और राजा हस्तिपाल भगवान महावीरके शुभागमनकी बाट जोह रहे
।
थे । इसलिये म ० वुद्धके अन्तिम समयके वरअक्स भगवान महावीरको कोई खबर कही को नहीं भेजने पड़ी थी । वस्तुत. भगवान कृतकृत्य हो चुके थे, इच्छा और वाञ्छासे परे पहुंच चुके थे इसलिये उनके विपयमें ऐसी बातें बिल्कुल ही सभव नहीं थी । श्रीगुणभद्राचार्यजी भगवान के अन्तिम दिव्य जीवनकालका वर्णन निम्नप्रकार करते हैं: - 46 क्रमात्पावापुरं प्राप्य मनोहरवनांतरे ।
वहूनां सरसां मध्ये महामणिशिलातले ।। ५०२ ॥ स्थित्वा दिनद्वयं वीतविहारो वृद्ध निर्जरः । कृष्ण कार्तिकपक्षस्य चतुर्दश्यां निशात्यये ॥ ५१०॥
१ सुत्तनिपात ( S. B. E. ) १०८८.