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________________ २०६ ] [ भगवान महावोर इस व्रतका वर्णन इस प्रकार मिलता है । ' रत्नकरण्डश्राव काचार 'में यह इसप्रकार बतलाया गया है:-- ' पर्वण्यष्टम्यां च ज्ञातव्यः प्रोषधोपवासस्तु । चतुरभ्यवहार्याणां प्रसाख्यानं सदेच्छाभिः ॥ १६ ॥ पंचानां पापानामलंक्रियारम्भगन्धपुष्पाणाम् । स्नानांजनस्यानामुपवासे परिहृतिं कुर्यात् ॥ १७ ॥ धर्मामृतं सतृष्णः श्रवणाभ्यां पितु पाययेद्वान्यान् । ज्ञानव्यानपरो वा भवतूपवसनतन्द्रालुः ॥ १८ ॥' भावार्थ- 'पर्याणि (चतुर्दशी ) और अष्टमीके दिनोंमें सदेच्छासे जो चार प्रकारके आहारका त्याग किया जाता है, उसे प्रोपधोपवास समझना चाहिये | उन उपवासके दिनों में हिंसादि पचपापोंका, अलंकार, पुष्पगंध आदि धारण करनेका, वाणिज्य व्यापार आदि व्यवहारके आरभका तथा गीतनृत्यादि, स्नान, अञ्जनका परित्याग करना चाहिये । इनका परित्याग करके उन दिनोंमें धर्मामृतका पान सतृप्ण हो स्वय करे एवं धर्मात्माओंको करावे और ज्ञानध्यानमें लीन होकर द्वादशानुप्रेक्षाओका चितवन करे ।' इसमें यह स्पष्ट नही किया गया है कि ज्ञान ध्यानके समय उस श्रावकको क्या प्रतिमायोग धारण करना चाहिये अथवा आचार्यके उपदेशसे मोह दूर करनेवाला वाक्य कहकर नग्नवृत्तिमें कायोत्सर्ग करना चाहिये, जैसे कि उक्त बौद्ध उद्धरणमे कहा गया है । परन्तु सागारधर्मामृतजीमें स्पष्टतः यह कह दिया गया है कि रात्रिके समय वह श्रावक प्रतिमायोग (नग्न होकर ) धारण करके कायोत्सर्ग कर सक्ता है । यथा:
SR No.010165
Book TitleBhagavana Mahavira aur Mahatma Buddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages287
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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