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'निशां नयतः प्रतिमायोगेन दुरितच्छिदे । ये क्षोभ्यते न केनापि तान्तु मस्तुर्य भूमिगाव ॥ ७ ॥
अ० ७ श्लोक ७ पृष्ठ ४२१ ।
इससे चौद्ध उद्धरणके उक्त कथनका एक तरहसे समर्थन होता है । बौद्ध उद्धरणमें रात्रि और दिनका भेद नही किया गया है । संभव है कि समयानुसार इस क्रियामें ढिलाई कर दी गई हो और आज तो इसका उल्लेख भी मुश्किलसे मिलता है । परन्तु उस प्राचीन समयमें इस शिक्षाव्रतके अनुसार नग्न होकर कायोत्सर्ग करना चहुत प्रचलित था । सेठ सुदर्शनके सम्बन्धमें हमें स्पष्ट वतलाया गया है कि उन्होने नग्न होकर कायोत्सर्ग किया था । यही बात अन्य कथाओसे भी सिद्ध है । प्रभाचंद्रजी अपनी 'रत्नकरण्ड' की टीका में ऐसा ही उल्लेख करते मालूम होते है, यथा: - 'मगधदेशे राजगृहनगरे जिनदत्तश्रेष्ठी कृतोपवासः कृष्णचतुर्दश्यां रात्रौ स्मशाने कायोत्सर्गेण स्थितो दृष्टः । ततोऽमितप्रभदेवेनोक्तम् । दूरे तिष्ठतु मदीया मुनयोऽमुं गृहस्थं ध्यानाच्च व्येति । अतएव चौद्धोंका उक्त कथन तथ्यपूर्ण है । इसमें कोई संशय नहीं कि ये व्रत श्रावकको त्याग अवस्थाकी शिक्षा देनेके उद्देश्य से नियत हैं । इसलिए उनमें उक्त प्रकार नग्न होकर कायोत्सर्ग करने का विधान होना युक्तियुक्त है ।
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इसी निकाय में अन्यत्र एक सूची उस समयके साधुओंकी दी है और उसमें निगन्थोकी गणना आजीवकोके बाद दूसरे नम्बरपर की है; सो इससे भी जैनधर्मकी प्राचीनता स्पष्ट है । यह सूची इस प्रकार है:
(१) आजीवक, (२) निगन्थ, (३) मुण्ड - सावक, (४)
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