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-और म० बुद्ध ]
[३१ रका दान देना, * (२) शीलपारिमिता-बौद्ध व्रतोका पालन करना, (३) नैसकर्मपारिमिता-संसारसे विरक्त होकर त्यागावस्थाका अभ्यास करना, (४) प्रज्ञापारिमिता- बुद्धिसे प्राप्त गुणोंको प्रगट करना, (५) वीर्यपारिमिता-दृढ़ वीरत्वको प्रगट करनेवाला साहस, (६) शान्ति पारिमिता--उत्कृष्ट प्रकारकी सहनशीलता, (७) सत्तपारिमिता-सत्य भाषण; (८) अदिष्टान पारिमिता-दृढ़-प्रतिज्ञाकी पूर्णता; (९) मैत्री पारिमिता-प्रेम और दयाका व्यवहार करना, (१०) और उपेक्षा पारिमिता-शत्रु मित्रपर समान भाव रखना । म० बुद्धने-अपने पूर्वभवों में इनके- अभ्यासमें कमाल हासिल कर लिया था, यह बात बौद्ध शास्त्रों में कही गई है। यह भी कहा गया है कि बुद्ध देवलोकमें अधिक नहीं ठहरते थे-वह अपने उद्देश्य प्राप्तिके लिए मनुष्य भवको ही बार२ प्राप्त करनेका प्रयत्न करते थे क्योंकि देवलोकमें रहकर वह अपने उद्देश्यकी प्राप्ति नहीं कर सक्ते थे । जैनधर्म में भी परमार्थ साधन और सर्वज्ञपद पानेके लिए मनुष्यभव लानमी बतलाया गया है। परन्तु वहां तीर्थङ्करपद पानेके लिए निदान बांधना आव. श्यक नहीं है। जैसा कि गौतमबुद्धने बुद्धपद पानेके लिए अपने एक पूर्वभवमें किया था । निदान बांधना जैन धर्ममें एक निकृष्ट क्रिया है। जबकि बौद्ध धर्ममें वह ऐसी नहीं मानी गई है। पारिमिताओंक
नेत्रम, रक्त भादि शरीर- अवयवोंका देना साधारण दान है। यह प्रथम प्रकारका दान मौन धर्ममें बतलाया गया है । दूसरे प्रकारका दान संतान बी, घोडे, पशुधन, पृथिवी, हीरा,जवाहिगत अदिको देना है। यह पहिलेसे रत्तम है और तीसरा सर्वोत्तम दानं प्राणोकी परवा न करके शरीरको पशुओं या राक्षसोको भक्षण करने देना है । (Manual of Buddhisni. P. 102). 25