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-और म० बुद्ध ]
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और सम्प्रति मौर्य सम्राटोंद्वारा इसका प्रचार अशोकके पहले ही होचुका था । फिर खारवेल, महामेघवाहनने जैनधर्मकी प्रभावना भारतव्यापी किंवा जावा आदि देशोंमें की थी। चीन और जापानमें भी जैनधर्म एक समय अवश्य रहा था, इसका प्रमाण वहांकी एक सम्प्रदायविशेषके अस्तित्वसे होता है। जो अहिंसाको विशेष मानते
और रात्रिभोजन नहीं करते है । जैन बुद्धधर्म' नामक चीनाई धर्मकी सदृशता साधारणतः जैनधर्मसे है । वह भेदविज्ञानको मुख्य मानते है। (देखो, दी रिलीजन्स आफ एम्पाइर ट० १८७)। इसतरह भगवान् महावीरद्वारा पुन. घोषित होकर जैनधर्म बहु प्रचलित होगया था ।
भगवान् महावीरने गृहस्थावस्थामें ब्रह्मचर्य पूर्वक श्रावकके व्रतोका अभ्यास करके करीब ३० वर्षकी अवस्थामें गृहत्यागकर दिगम्बर मुनिके व्रत धारण किये थे । बारह वर्ष तक घोर तपस्या
और ध्यान करनेपर उनको करीव ४३ वपकी अवस्था में सर्वजताका लाभ हुआ था। इसी समयसे वे अपना उपदेश देने लगे थे। भगवानकी सर्वज्ञताको मवुद्धने भी स्वीकार किया था और उसका प्रभाव म० वुद्धके जीवनपर इतना पड़ा था कि उनके जीवनकी तत्कालीन घटनाओका प्रायः अभाव ही है। अन्ततः भगवान महावीरने पावापुरसे जब निर्वाण लाम किया था तब म० बुद्ध जीवित थे। उपरांत म० बुद्ध करीब पांच वर्षतक और उपदेश देते रहे थे इस समय राजा अजातशत्रुने उनके धर्मको अपनाया भी था आखिर बौद्धशास्त्र कहते हैं कि कुसीनारामें म० बुद्धका 'परिनव्यान' घटित हुआ था। संक्षेपमें दोनो युगप्रधान पुरुषोती ये जीवन घटनाये हैं इनमें भगवान महावीरके दर्शन हम एक साक्षात् परमात्मा रूपमें करते है। वे एक अनुपम तीर्थकर थे। यह प्रस्ट है। इतिगम !