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[ भगवान महावीर__इन राज्योंमे परस्पर मित्रता थी और बहुधा वे एक दूसरेसे सम्बंधित भी थे; परन्तु इसका यह अर्थ नहीं है कि इनमें कमी परस्पर रणभेरी न वनती हो। यदाकदा संग्राम होनेका उल्लेख भी हमें शास्त्रोंमें मिलता है, किन्तु इतना स्पष्ट है कि इन राज्योकी प्रना विशेष शांति और सुखका उपभोग करती थी। उसे ऐसा भय नही था जो वह अपनी उभय उन्नति सानन्द न कर सक्ती । साम्राज्यके आधीन भी वह सुखी थी और गणराज्योकी छत्रछायामे उसे किसी बातकी तकलीफ नहीं थी । इस प्रकार उस समयकी राज्यनैतिक परिस्थितिका वातावरण था। यह सर्वथा प्राचीन आर्योंके उपयुक्त था । सचमुच आजकी दुनियाके लिए वह अनुकरणीय आदर्श है।
उस समयकी सामाजिक परिस्थिति भी अजीब हालतमें थी। उस समयके पहले एक दीर्घकालसे ब्राह्मणोकी प्रधानताका सिक्का समाजमें जम रहा था । ब्राह्मणोंने सामाजिक व्यवस्थाको एकतरहसे अपनी आजीविकाका कारण बना लिया था। उसी अपेक्षा उन्होने धर्मशास्त्रोके पठन पाठनका अधिकार इतरवर्णो-अर्थात् क्षत्रिय, वैश्य, शूद्रों-को नही दे रक्खा थाप्रत्युत उनके आत्मकल्याणके .. लिये अपने आपको पुजवाना ही इष्ट रक्खा था। जनताको बतलाया था कि तुम अमुक प्रकार यज्ञ आदि क्रियाओको कराकर हमारी सतुष्टि करो तो तुमको वर्गसुखकी प्राप्ति होगी और इस स्वर्गसुखके लालचमे लोग उस समय भी यज्ञवेदीको निरापराध मूक पशुओंके रक्तसे रगते नहीं हिचकते थे। यहां भी शूद्रादि मनुष्योको बहुत ही नीची दृष्टिसे देखा जाता था। परिणामतः