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________________ १९०] [ भगवान महावीर- . रुच्चति चेव खमति च तेन च आम्हा अत्तमना ति" __इसका भावार्थ यह है कि म० बुद्ध कहते हैं: “ हे महानाम, मैं एक समय राजगृहमें गृडकूट नामक पर्वत पर विहार कर रहा था। उसी समय ऋषिगिरिके पास 'कालशिला' (नामक पर्वत) पर - बहुतसे निर्ग्रन्थ (जैनमुनि) आसन छोड उपक्रम कर रहे थे और तीव्र तपस्यामें प्रवृत्त थे। हे महानाम, मै सायंकालंके समय उन निग्रंथोके पास गया और उनसे बोला, 'अहो निग्रन्थ ! तुम आसन छोड़ उपक्रम कर क्यों ऐसी घोर तपस्याकी वेदनाका अनुभव कर रहे हो? हे महानाम ! जब मैने उनसे ऐसा कहा तब वे निग्रन्थ इस प्रकार वोले-'अहो, निग्रन्थ ज्ञातपुत्र सर्वज्ञ और सर्वदर्शी हैं, वे अशेष ज्ञान और दर्शनके ज्ञाता हैं। हमारे चलते, ठहरते, सोते, जागते समस्त अवस्थाओंसे सदैव उनका ज्ञान और दर्शन उपस्थित रहता है। उन्होने कहा है:-'निर्ग्रन्थो ! तुमने पूर्व (जन्म)में पापकर्म किये हैं, उनकी इस घोर दुश्चर तपस्यासे निर्जरा कर डालो । मन, वचन और कायकी संवृतिसे (नये ) पाप नहीं चंधते और तपस्यासे पुराने पापोंका व्यय होजाता है। इस प्रकार नये पापोंके रुक जानेसे आयति (आश्रव) रुक जाती है, आयति रुक जानेसे कर्मोका क्षय होता है, कर्मक्षयसे दुक्खक्षय होता है, टुक्खक्षयसे वेदना-क्षय और वेदना-क्षयसे सर्व दुखोंकी निर्जरा होजाती है।' इसपर बुद्ध कहते है - यह कथन हमारे लिये रुचिकर प्रतीत होता है और हमारे मनको ठीक जंचता है। १ जिसमनिकाय (P. T.S) भाग १ पृष्ठ ९२-९३. २ भगवान महावीर पृष्ट २५६-२७७. (परिशिष्ट ३) -
SR No.010165
Book TitleBhagavana Mahavira aur Mahatma Buddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages287
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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