SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 182
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १६६ ] [ भगवान महावीर - जो ज्ञानवान है, तथागतोंके अनुयायी हैं, वे न इंद्रियवासनाओ में आनंद मानते न उनसे सुखी होते है और न उनके पीछे लगे रहते है, और जब वे उनके पीछे नहीं लगते हैं तो उनमें तृष्णाका अभाव हो जाता है। तृष्णाके अभावसे ग्रहण करना (Grasping) बन्द होजाता है । इसके बंद होनेसे भव धारण करनेका (Becoming) अन्त हो जाता है । और जब भवका ही नाश हो गया तब फिर जन्म, जरा, रोग, शोक, मृत्यु, पीडा आदि सब बन्द होजाते हैं । इस प्रकार इस अभावक्रमसे (Cessation) पीडाके समुदायका (Aggregation of Pain ) का अन्त हो जाता है, बस यही अभाव निर्वाण है । " ( मिलिन्दपन्ह ३ | ४|५ ) यह पीडाके अन्त करनेका मार्ग है और प्रायः ठीक ही है, परन्तु इसका क्रियात्मकरूप इसका भेद प्रगट कर देगा । इस मतको प्रगट करते हुये भी म० बुद्धके चारित्र नियम निर्माणमे इसको पूर्ण आदर नहीं दिया गया है। हम अगाडी यही देखेंगे। भगवान महाचीरने भी इन्द्रियजनित विषयवासनाओसे दूर रहनेका उपदेश दिया था, परन्तु म ० बुद्धकी तरह उनका उद्देश्य 'पूर्ण अभाव' नहीं था । उनका उद्देश्य एक वास्तविक पदार्थ था जिसको पाकर आत्मा स्वाधीन परमात्मा हो जाता है । भगवान महावीर और म० बुद्धके मतोंमें यही विशेष दृष्टव्य अन्तर है । एक रकसे राव बनानेका मार्ग है, दूसरा रकसे अगाडी उठाकर उसका कुछ भी नहीं रखता है । अस्तुः इसतरह म० बुद्धका सर्वोत्कृष्ट उद्देश्य पूर्ण अभाव (Complete passing away ) था और इसी उद्देश्यके लिए उनका •
SR No.010165
Book TitleBhagavana Mahavira aur Mahatma Buddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages287
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy