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[ भगवान महावीरछः वर्ष निकाल दिये ।'
म० बुद्धने जो इस प्रकार छः वर्ष तक साधु जीवन व्यतीत किया था, वह जैन साधुकी उपवास और ध्यानमय, मौन और कायोत्सर्ग शांत अवस्थाके विल्कुल समान है। अतएव इस अवस्थामें यह जैन शास्त्रोकी इस मान्यताका प्रत्यक्ष प्रमाण है कि म० बुद्ध अपने साधु जीवनमे किसी समय जैन मुनि भी रहे थे। जैन शास्त्रकार कहते है कि " श्री पार्श्वनाथ भगवानके तीर्थमे सरयू नदीके तटवर्ती पलाश नामक नगरमें पिहिताश्रव साधुका शिष्य बुद्धकीर्ति मुनि हुआ जो महाश्रुत या बडा भारी शास्त्रज्ञ था । परंतु मछलियोंके आहार करनेसे वह ग्रहण की हुई दीक्षासे भ्रष्ट होगया
और रक्ताम्बर (लाल वस्त्र धारण करके उसने एकातमतकी प्रवृति की । फल, दही, दूध, शक्कर आदिके समान मासमे भी जीव नहीं है, अतएव उसकी इच्छा करने और भक्षण करनेमें कोई पाप नहीं है । जिस प्रकार जल एक द्रव द्रव्य अर्थात् तरल या वहनेवाला पदार्थ है उसी प्रकार शराब है, वह त्याज्य नही है। इस प्रकारकी
१. " With full purpose of heart (he set himself) to endure mortification, to restrain every bodily passion, and give up thought about sustenance. With purity of heart to obsei vo the fast zules, which no worldly man (active man) can bear, silent and still, lost in thoughtful meditation, and so for six years he continued " बुद्धजीवन (S. B. E. XIX) पृ० १४१ २ जैनसुत्र (S BE.) भाग १ पृष्ठ ३९-४१ और रत्नकरण्डक श्रावकाचार १-१०.