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________________ २०४] [ भगवान महावीरकरनेकी मर्यादा नहीं होती है किन्तु इस नियमको धारण करनेसे यह मर्यादा उपस्थित होजाती है और फिर वह व्यापार निमित्त भी पहलेसे कम हिंसा करनेका भागी होता है । यह ध्यानमें रखनेकी बात है कि श्रावकको आरंभी हिंसाका त्याग नहीं है। वह केवल जानबूझकर हिंसा नहीं करेगा, क्योंकि वह अहिंसाका पालन एकदेश रूपमें करता है । बौद्धाचार्यने यहांपर जैनाचार्यके भावको गौण करके उल्टा उनपर अदयाकी शिक्षा देनेका मिध्या लाञ्छन आरोपित किया है। यही बात डॉ० हर्मन जैकोबी इस सम्बन्धमें जैनसूत्रोंकी भूमिकामें प्रकट करते हैं। वे लिखते हैं: We cannot espect one sect to give a fair and bouest esposition of the tenets of their opponents, it is but natural that they should put tbem in such a foriu as to make the objec. tions to be raised against them all the better applicable. (Jaipa Sutras. S. B. E. Pt. II. In tro. XVIII). भावार्थ-यह आशा नहीं की जासक्ती है कि एक सम्प्रदाय अपने विपक्षी सम्प्रदायकी मान्यताओंका यथार्थ विवेचन करे । यह स्वाभाविक है कि वे उनको ऐसे विकृतरूपमें रखें कि जिससे उनपर अधिकसे अधिक आरोप अगाड़ी लाये नासकें। इस प्रकार चौद्ध अन्यमें जो रक्त प्रकार जेन नियम 'दिग्वत' पर लांछन लगाया गया है, वह ठीक नहीं है । तथापि यह दृष्टव्य है कि यह नियम मेगवान महावीरके समयसे अबतके अपने अविरतरूपमें हमको मिल रहा है। अगाडी उक्त उल्लेखमें कहा गया है कि "पोपटके दिन चे (निगन्य) एक सावक (श्रावक )मे प्रेरणा करके कहते हैं-भाई,
SR No.010165
Book TitleBhagavana Mahavira aur Mahatma Buddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages287
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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