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________________ -और म० बुद्ध ] [ २०३ किन्तु जिस समय राजा अशोकके राज्यकाल में यह बौद्धग्रन्थ संकरित हुये थे उस समय अवश्य ही यह परस्थिति घटित हो गई थी । इस कारण यदि यहां उक्त प्रकार उल्लेख किया गया है तो कुछ बेजा नहीं है। इससे प्रकट है कि जैनसंघ में पूर्ण भेद क्रमशः हुआ था । इस प्रकार मज्झिमनिकायके जैन उल्लेख जो हमारे देखने में आए उनका वर्णन है । अब पाठकगण, आइये बौद्धग्रन्थ ' अङ्गुत्तरनिकाय ' में जैन उल्लेखोंका दिग्दर्शन करलें । इसमें एक स्थलपर जैन श्रावकोंकी. क्रियायोंका विवेचन किया गया है ।' उसका अनुवाद इस प्रकार है कि " हे विशाखा ! एक ऐसे भी समण हैं जो निगन्थ कहलाते है । वे एक श्रावकसे कहते हैं: - 'भाई, यहांसे पूर्व दिशामें एक योजन तक प्राणियोंको पीडा न पहुंचानेका नियम ग्रहण करो। इसी तरह यहांसे पश्चिम, उत्तर, दक्षिण में एक योजनतक प्राणी हिंसा न करनेकी प्रतिज्ञा लो ।' इस प्रकार वे दयाका विधान कतिपय प्राणियोंकी रक्षा करनेमें करते हैं; तथापि इसी अनुरूप वे अदयाकी शिक्षा अन्य जीवोंकी रक्षा न करने देनेके कारण देते हैं ।" । यहां बौद्धाचार्य जैनियोंके दिखतका उल्लेख कर रहा है इस व्रतके अनुसार एक श्रावक दिशा विदिशाओं में नियमित स्थानोंके भीतर ही जाने आने और व्यापार करनेका नियम ग्रहण करता है। इसका भाव यह है कि साधारणतया मनुष्योंको कोई रोकटोक कही भी आने जानेकी न होनेसे उनके व्यापारादि निमित्त हिंसा દ १. अंगुत्तरनिकाय 3-७०-३ १२. रत्नकरण्ड श्रावकाचार (मा० प्र०) पृ० ६० ।
SR No.010165
Book TitleBhagavana Mahavira aur Mahatma Buddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages287
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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