________________
11
.
-और म० बुद्ध ]
[२७ णित होता है। अर्थात् भगवान पार्श्वनाथकी शिष्यपरम्पराके ऋषिगण भी इस समय मौजूद थे और उन्होने जो अहिसामई स्याहादकर संयुक्त धर्म प्रतिपादन किया था उससे लोग भड़क गये थे, परन्तु वे सहसा अपनी मासलिप्साका मोह नहीं त्याग सके थे। इसी कारण उन्होने भगवान पार्श्वनाथके उपदेशको विकृतरूप देकर अपनी जिह्वालम्पटताके उद्देश्यकी सिद्धि की थी* यहां तक कि ऐसे तापस
* सचमुच जैनधर्मके दिव्य उपदेशसे प्रभावित हो यह मतप्रवर्तक भगवान महावीरके पहिलेसे विकृतरूप में अपने मनोनुकूल धर्मका प्रचार कर रहे थे: इसका स्पष्ट समर्थन भाधुनिक विद्वान भी करते दृष्ट पड़ते हैं । स्व० जेम्स डेऽलिस साहवके लेखसे स्पष्ट है कि 'दिगम्बर' एक प्राचीन संप्रदाय समझा जाता था भौर उपरोक्तलिखित मतप्रवर्तकोंके सिद्धान्तोपर जैनधर्मका प्रभाव पडा नजर पड़ता है। (In James d Alwis' paper ( Ind. Anti: VIII.) on the six Tirthakas the “Diyambaias" appear to bave been regarded as an old order of ascetics and all of these horetical teachers betray the influence of Jaluism in their doctrines." Ind. Ant. Vol. IX. P. 161). यही बात जैनदर्शनदिवाकर डॉ. हर्मन जैकोबी भी प्रकट करते मालूम पड़ते हैं यथा
“The preceding four Tirthakas appear all to have adopted some or other doctrines or practices, which wakes part of the Jaina System,. probably from the Jains themselves. ....It ap. pears from the preceding remarks thut Jaina idens and practices must have been current at the time of Mahavira and independently of him,